" "

भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत समर्थक

women's day 2013 : अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर क्या महिला शुरक्षित है ??

women's day 2013, women day 2013, women's day, womens day 2013, women's day 2013, women day 2013, women's day, womens day 2013, women's day 2013, women day 2013, women's day, womens day 2013, women's day 2013, women day 2013, women's day, womens day 2013, women's day 2013, women day 2013, women's day, womens day 2013, women's day 2013, women day 2013, women's day, womens day 2013,

women's day 2013


भारतीय संस्कृति मातृ-प्रधान संस्कृति रही है। इस नाते पारिवारिक दायरे से लेकर सांस्कृतिक प्रभावों में देश की महिलाओं का वर्चस्व बना रहा है। पौराणिक दृष्टि से देखें तो हमारी प्राचीन संस्कृति में नारी की महत्ता सदैव अप्रतिम मानी गई है। यानी हम कह सकते है-"यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमन्ते तत्र देवता" (जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं।) 

मौजूदा दौर में हम अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाकर भी इनकी गरिमा को याद रखा करते हैं। विश्वव्यापी तौर पर आठ मार्च को प्रतिवर्ष हम अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस हम मनाते हैं और इस सदी में इनके योगदान की मीमांसा करते हैं। लेकिन, व्यापक परिप्रेक्ष्य में आज भी हमारे सामाजिक दायरे में ऐसी विसंगतियां देखने को मिल जाती हैं, जो इनकी गरिमा के विपरीत रहा करती है। ऐसी प्रवृत्ति हमारी दकियानूसी सोच का ही अभिप्राय है। 

अगर ऐसा न होता तो जिस दिन सारी दुनिया में जहां महिला दिवस मनाया जा रहा था। उसी दिन महिलाओं को उत्पीड़ित किए जाने से लेकर उनकी हत्या तक के मामले घटित नहीं होते। जिस महिला दिवस को आधी दुनिया या आधी आबादी के रूप में हम आंकते रहे हैं, उसी आधी दुनिया में विसंगतियों का ऐसा जंजाल आज तक क्यों नहीं मिट पाया है? इस बात का जवाब दिया जाना वाकई टेढ़ी खीर है?

सच्चाई का दायरा तो वास्तव में महिलाओं की अकूत श्रमशीलता, गृहस्थ धर्म, पारिवारिक संस्कार और जीवनदर्शन के तमाम गुणों की अवधारणा पर निर्भर करता है। अंग्रेजी के एक विद्वान का यह कथन कितना सटीक हैः ' टू टीच ए मैन इज इक्वल टू टीच ए मैन, बट टू टीच ए वुमन इज इक्वलेंट टू टीच ए फैमिली" (एक मानव को शिक्षा देना, एक मानव को शिक्षा देने के बराबर है, लेकिन एक महिला को शिक्षा देना, पूरे परिवार को शिक्षा देने के बराबर है।) स्पष्ट है कि महिला का पारिवारिक दायरे में जो योगदान होता है, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। इसीलिए हमारी संस्कृति को मातृ-प्रधान इसलिए माना गया है। 

अफसोस की बात यह है कि आज अपने परिवर्तित दायरे में हम एक दिन तो देश के नारीत्व के नाम समर्पित कर देते हैं। लेकिन, इसके अनुपालन में हमारा समाज उतना तवज्जो नहीं देता जितना उसे देना चाहिए। इन सारी विसंगतियों के पीछे जो मूल कारण है, वह वाकई त्रासदीपूर्ण है। 

चूंकि, राष्ट्रीय परिवेश में जब हम अपने संचार साधनों की समीक्षा करते हैं तो यह साफ जाहिर हो जाता है कि हम अपनी संस्कृति को इस दायरे में कोई महत्व नहीं दे रहे हैं। दूरदर्शन, रेडियो, साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हमें जिस तरह की ऊर्जा मिलनी चाहिए वैसी ऊर्जा आज नहीं मिल पा रही है। इसके पीछे जो तथ्य छिपे हैं, उसकी गंभीरता को समझना चाहिए। 

टेलीविजन के जरिए हमें जो कुछ परोसा जा रहा है उस दिशा में न तो संस्कृति विभाग ही ध्यान दे रहा है और न ही मानवीय गतिविधियों से जुड़े सांस्कृतिक संगठन ही। यदि इसी तरह हमने अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली तो न जाने हमारे मानवीय दायरे में किस तरह का भूचाल नहीं आ जाएगा? इसकी चिंता न करते हुए हम यदि इसे सहजतौर पर टालते जाएंगे तो निश्चित तौर पर यह हमारी सभ्यता और संस्कृति को कालिख मलने से चूकेगा नहीं। 


दरअसल, शैक्षणिक संस्थाओं को इस संदर्भ एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए। यदि हम अपने नौनिहालों को प्रारब्ध की शिक्षा में अपने दायित्व से काट कर रखेंगे तो उनमें परिवर्तन कहां आ पाएगा। यही वह उम्र है जहाँ हम इन नौनिहालों को संस्कारित कर सकते हैं। ऐसा किया जाना अपनी सभ्यता को शिखर तक पहुंचाना ही है।

" "