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भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत समर्थक

आप सत्ता में आयी तो भ्रष्ट मंत्रियों को 6 माह में जेल

फिल्म 'सत्याग्रह' में रियल अन्ना बने अमिताभ

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इन दिनों अमिताभ बच्चन भोपाल में फिल्म 'सत्याग्रह' की शूटिंग कर रहे हैं। गौरतलब है कि जब बिग बी को एक प्रोटेस्ट का सीन शूट करना था, तो बिग बी सच में ही आंदोलनकारी बन गए।

हुआ यूं कि बिग बी और उनके साथ के बाकी लोगों को एक प्रोटेस्ट का सीन करना था। कुछ दूरी पर पुलिस ने बैरिकेडिंग की हुई थी, जो कि वॉटर कैनन लिए हुए थी। जैसे ही पुलिस ने प्रोटेस्टे करने वालों को रोकना चाहा, तो अमिताभ के अंदर कुछ ज्यादा ही जोश आ गया और पुलिस उन्हें रोक ही नहीं पाई। उन्हें देखकर तो यही लग रहा था कि वह सच में प्रोटेस्ट करने आए हैं।

आपको बता दें कि प्रकाश झा की यह फिल्म अन्ना हजारे के आंदोलन पर बेस्ड है। इसमें अमिताभ अन्ना हजारे का रोल करते नजर आएंगे। वहीं, अजय देवगन अरविंद केजरीवाल का रोल कर रहे हैं। इसके अलावा, फिल्म में करीना कपूर, अर्जुन रामपाल वगैरह भी हैं।

अब देखना यह है कि प्रकाश झा का यह सत्याग्रह कितना रियल बन पाता है।

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को नया रूप देंगे अन्‍ना हजारे


बीदर (कर्नाटक) : समाजसेवी अन्ना हजारे ने कहा कि उन्होंने करीब डेढ़ महीने में भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने आंदोलन को नया रूप देने का फैसला किया है। 

‘बासव श्री’ पुरस्कार हासिल करने के बाद एक जनसभा को संबोधित करते हुए अन्ना ने भ्रष्टाचार विरोधी अपने आंदोलन में शामिल होने की इच्छा रखने वाले लोगों से कहा कि वे 99234-99235 पर उन्हें एसएमएस करें जिससे वह उनके संपर्क में रहेंगे। अन्ना ने 12वीं सदी के समाज सुधारक बासवेश्वर की सराहना करते हुए कहा कि उन्होंने एक जातिहीन समाज की स्थापना के लिए अथक प्रयास किए थे।

केजरीवाल चाहते थे अन्ना का बलिदान : अग्निवेश

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नई दिल्ली - टीम अन्ना के पूर्व सहयोगी स्वामी अग्निवेश के एक सनसनीखेज बयान ने खलबली मचा दी है। उन्होंने इंडिया न्यूज़ चैनल पर एक इंटरव्यू में कहा कि अरविंद केजरीवाल चाहते थे कि अनशन के दौरान अन्ना हजारे की मौत हो जाए और इसका फायदा आंदोलन को पहुंचे। अग्निवेश ने कहा कि अरविंद ने उनसे कहा था कि अन्ना का बलिदान आंदोलन के लिए अच्छा रहेगा।

अग्निवेश के इस दावे पर सवाल उठाने वालों की भी कमी नहीं है। यह जगजाहिर है कि केजरीवाल और अग्निवेश में मतभेद आंदोलन के शुरुआती दिनों से ही हैं।

केजरीवाल का जवाबः उधर, अरविंद केजरीवाल ने स्वामी अग्निवेश के आरोपों को हास्यास्पद करार दिया है। केजरीवाल ने ट्विटर कर कहा, 'कुछ मीडिया वाले स्वामी अग्निवेश के हवाले से कह रहे हैं कि मैं अन्ना को 'मारना' चाहता था। क्या इससे हास्यास्पद चीज कुछ और हो सकती है। क्या स्वामी अग्निवेश ने कुछ सबूत दिए हैं?, नहीं। तो फिर क्या उनसे यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि वे इस बारे में कुछ सबूत दें? अन्ना पर एक नहीं 100 जिंदगी कुर्बान।'

क्या-क्या कहा अग्निवेश नेः अग्निवेश के मुताबिक अप्रैल 2011 में जब जंतर-मंतर पर जन लोकपाल आंदोलन शुरू हुआ तो वह अन्ना को आमरण अनशन पर बैठाने के खिलाफ थे। अग्निवेश ने कहा, 'जब मुझे पता चला कि अन्ना आमरण अनशन करने वाले हैं, तो मैंने अरविंद से सवाल किया था कि वह अन्ना जैसे बुजुर्ग को आमरण अनशन पर क्यों बैठा रहे हैं? इस पर अरविंद ने कहा कि उनका बलिदान हो जाता है तो इससे क्रांति होगी। वह मर जाएंगे तो कोई बात नहीं, यह आंदोलन के लिए अच्छा रहेगा।'

अग्निवेश के मुताबिक जंतर-मंतर पर अनशन के दौरान सरकार द्वारा सारी मांगें मंजूर करने के बाद भी अरविंद केजरीवाल अन्ना को पांच-सात दिन और अनशन करने के लिए उकसाते रहे। उन्होंने कहा, 'आंदोलन की शुरुआत से ही केजरीवाल बहुत बड़ी महत्वकांक्षा लेकर चल रहे थे। उन्हें लग रहा था कि अन्ना के कंधे पर रखकर ही वह अपनी बंदूक चला सकते हैं। केजरीवाल को लगता था कि अन्ना की छवि का फायदा उठाकर वह लोगों के बीच अपनी बड़ी इमेज बना सकते हैं। इसी के चलते उन्होंने अन्ना को पुणे से लाकर जंतर-मंतर पर बिठाया।'

अग्निवेश के मुताबिक अरविंद केजरीवाल चाहते थे कि अन्ना अपना आंदोलन जारी रखें। आंदोलन के दौरान सरकार द्वारा सारी मांगें मान लेने के बावजूद अन्ना अरविंद के उकसावे पर अनशन पर डटे रहे। उन्होंने जब अरविंद ने बात की तो उन्होंने कहा कि अन्ना अनशन नहीं तोड़ेंगे अभी पांच-सात दिन अनशन और जारी रखेंगे। इस बात का तब उन्हें बहुत बुरा लगा था। उन्हें तब लगा कि यह अनशन किसी और मकसद से करवाया जा रहा है। अग्निवेश के मुताबिक किरण बेदी को भी यह बात बुरी लगी थी।

स्वामी अग्निवेश ने कहा कि उन्होंने इसके बाद टीम अन्ना के सदस्य शांति भूषण और प्रशांत भूषण से बात की। वह भी इस बात पर राजी थे कि अब अन्ना को अनशन तोड़ देना चाहिए। उन्होंने अन्ना को जब इस बारे में समझाया तो वह नहीं माने। इस पर शांति भूषण अन्ना पर बरस पड़े। प्रेस कॉन्फ्रेंस कर पोल-पट्टी खोलने की धमकी के बाद ही अन्ना अनशन तोड़ने पर राजी हुए थे।

आंदोलन से शुरुआत से जुड़े अरविंद गौड़ ने अग्निवेश के आरोप को खारिज कर दिया है। उन्होंने कहा कि ऐसा सोचना भी पाप है कि कोई अन्ना को नुकसान पहुंचाना चाहता था। अगर कोई ऐसा कह रहा है तो यह गलतबयानी है। उन्होंने कहा कि आंदोलन के दौरान जो भी हुआ वह स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। सरकार के रवैये के हिसाब से ही फैसले लिए गए और इस बात पर विचार किया गया कि अनशन कब और कितने दिनों का हो। उनका कहना एकदम गलत है कि कोई अन्ना जी को मारना चाहता था। अग्निवेश का बयान पूरी तरह से बेबुनियाद है।

इस प्रकरण पर अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी से संपर्क करने की कोशिश की गई लेकिन कोई भी जवाब नहीं मिला। हालांकि सूत्रों का कहना है कि इस तरह की बातों से अरविंद केजरीवाल के साथ ही अन्ना से जुड़े कई लोगों को असहजता का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे सवालों का जवाब देते भी नहीं बन रहा है।केजरीवाल के करीबी सूत्रों का कहना है कि यह अग्निवेश की कुंठा है, जो इस तरह से निकल रही है।

अन्ना हमें हमेशा से प्रेरणा देते रहे हैं, यह सोचना भी गुनाह है। वैसे अगर अग्निवेश की बात करें तो आंदोलन के शुरुआती दिनों में ही उन्हें आंदोलन के लिए नुकसानदायक बता कर टीम अन्ना से बाहर कर दिया गया था। उन पर अन्ना की टीम में जासूसी कर खबरें सरकार तक पहुंचाने का इल्जाम लगा। उनकी एक ऑडियो रिकॉर्डिंग सामने आई, जिसमें उन्हें किसी संदिग्ध से बात करते दिखाया गया। तब भी अग्निवेश ने केजरीवाल पर तानाशाही के इल्जाम लगाए थे और उन्हें अन्ना हजारे के लिए नुकसानदायक बताया था।


प्रधानमंत्री को अन्ना की चिट्ठी


सेवा में,
माननीय डॉ. मनमोहन सिंहजी,
पंथप्रधान, भारत सरकार,
नई दिल्ली

विषय:- संसद सर्वोपरी हैं, उसका निर्णय अंतिम हैं, कॅबिनेट उसमें बदलाव नही कर सकती|

सम्मानीय पंथप्रधानजी
सादर प्रमाण...

महोदय,

संसद का बजेट सत्र शीघ् रही शुरू होने जा रहा हैं और आप उसकी तैय्यारीओं में व्यस्त होंगे| आशा करता हूं की इस व्यस्तता के बावजूद आप मेरे इस पत्र मे उपस्थित किये गये मुद्दों पर गौर करेंगे|

जैसा की आप जानते हैं कि 16 अगस्त 2011 मे रामलीला मैदान पर जो अनशन किया था| 10 दिन के बाद आपने स्वयं मुझे दि. 27 अगस्त को पत्र लिखकर संसद के दोनो सदनोने पारित किये हुए रिजोल्युशन का हवाला देकर अनशन समाप्त करने का अनुरोध किया था| आपके अनुरोध एवं इस रिजोल्युशन व्दारा संसदने तीन मुद्दोंपर अपनी प्रतिबध्दता जताई थी|

1. सिटीजन चार्टर

2. सभी श्रेणी के कर्मचारियों को लोकपाल कानून मे सम्मीलीन करना |

3. उपयुक्त जरियेसे राज्योंमे लोकायुक्त का गठन करना तिनो मुद्दे को लोकपाल के दायरे में लायेंगे|

इन तीनों मुद्दों को लेकर विगत देढ सालमें चर्चा हो रही हैं और अब यह जरूरी हुआ है की मै आप तक मेरी भावनाएँ पहूंचा दूं|

1. सिटीजन चार्टर के मुद्दे को सरकार ने मुझे लिखीत आश्वासन देने के बावजूद लोकपाल बिल से अलग कर दिया और कहां की उसको अलग कानून के रूप में लाया जायेगा| अगस्त 2011 में सत्ता-पक्ष एवं समुचे विपक्ष ने पुरी सहमती के साथ संसद के दोनों सदनोंमे रिजोल्युशन कर जिन मुद्दे पर देशवासियोंको वचन दिया था| वह अभी तक पुरा नही हो पाया| क्या हमारी सरकार इतनी दुबली बन चुकी हैं की संसद मे सर्व समहमीसे पास किया हुआ रिजोल्युशन के आधार पर दिया गया वचन निभाने मे वह सक्षम नही हैं?

2. सभी श्रेणीयोंके कर्मचारियों को लोकपाल के दायरें में लाने पर संसदने पुरी प्रतिबध्दता उक्त रिजोल्युशन व्दारा जताई थी| हाल ही में गठीत राज्यसभा की सिलेक्ट कमिटीने जो रिपोर्ट सदन को पेश किया हैं उसमें भी इस प्रतिबध्दता को दोहराया था| अ,ब,क,ड श्रेणी के कर्मचारी, अधिकारी लोकपाल के अधिन लाना हैं, गौर तलब है के सिलेक्ट कमिटी मे भी सभी राजनैतिक दलोंके के प्रतिनिधी शामील हैं| अब मिडीया के जरिये यह पता चला हैं कि कॅबिनेटने अपने मिटींग मे यह तय किया हैं की श्रेणी 3 एवं श्रेणी 4 के कर्मचारि योंको लोकपालके दायरे से बाहर रखा जाएं| मुझे इस बात पर बडा आश्‍चर्य हो रहा है की जिस विषयमें संसद आम सहमीसे निर्णय कर चुकी हैं उस मुद्दोको कॅबिनेट खारिज कैसे कर सकती हैं| हमारे जनतांत्रिक ढांचे मे संसद सर्वोपरी हैं, या कॅबिनेट? प्रश्न निर्माण होता हैं|

अगर संसद सर्वोपरी हैं, तो कॅबिनेट कौन से कानून के अधिकरोंके तहत संसद के फैसले को बदल सकती हैं? क्या कॅबिनेट का एैसा करना संसद की अवमानना नही हैं? गांव एवं कसबों में बसा 'आम आदमी' भ्रष्टाचारसे सबसे ज्यादा प्रभावित हैं| ग्रामसेवक, मंडल अधिकारी जैसे निचले स्तर के अधिकारीयोंके भ्रष्टाचार से जिनसे आम आदमी को आये दिन झुंझना पडता हैं| फिर इन अफसरोंको आपकी सरकार लोकपाल के दायरे से क्यों बचाना चाहती हैं? मेरी दृष्टीसे यह मुद्दा इसलिए भी अहमियत रखता हैं की अगर संसद के फैसले को कॅबिनेट बिना किसी संवैधानिक अधिकारके अपने मतानुसार बदल दें तो इससे हमारे संवैधानिक ढांचे परही सवालिया निशान लगता हैं| हो सकता है के कॅबिनेट जो करने जा रही है उसके परिणाम देश को हर बार भुगतनेे पडे और संसदका महत्व कम हो कर कॅबिनेट ही सर्वोपरी बन जाए| फिर इस देशको शायद भगवान ही बचा पाएं| आप संसदके नेता हैं और मंत्रीमंडल के मुखियां| आपको स्वयं निर्णय करना हैं की देश को संसद चलाएगी या सिर्फ सरकार| अत:मेरा आपसे नम्र अनरोध है की आप संसद की गरीमा को अहमियत देकर सभी श्रेणीयोंके कर्मचारियोंको लोकपाल के दायरे में लाकर संसद की प्रतिबध्दता को निभाएं|

३.संसद के उक्त रिजोल्युन मे यह बात कही गई थी की उचित उपायोंव्दारा राज्योंमे लोकायुक्त का गठन किया जायेगा| केंद्र, राज्य संबंधो के अहम मुद्दोंको लेकर भी संसद मे चर्चा हुई थी| अब अगर केंद्र सरकार यह कह रही है की लोकायुक्त का निर्माण राज्य सरकारों व्दारा किया जाए तो प्रश्न उपस्थित होता हैं की क्या इसे हम राज्य सरकारोंकी अपनी मर्जी पर छोड रहे हैं? ऐसा नही होना चाहिए अन्यथा अलग राज्योंके लोगोंको भ्रष्टाचार के विषयमें अलग न्याय मिलेगा जो उचित नही हैं| मैं इस बात का आग्रह करता हूं की अगर इस लोकायुक्त का निर्माण राज्योंके अधीन किया जा रहा हैं तो केंद्र सरकार आम सहमतीसे लोकायुक्त कानून का अच्छा मसौदा आम सहमीसे तैयार करे और फिर राज्य सरकारोंको अनुरोध करे की इस मसौदे को ही अपनाएं जाएं| भारत के लोकतंत्र में हर राज्यके लोगों को अलग न्याय नही होना चाहिए| किसी राज्यके नागरिक होनेसे पहलेे हम सब भारत के नागरिक है इस बात को नजर अंदाज नही किया जा सकता| अत: आपसे प्रार्थना है की लोकायुक्त के मसले को राज्यों पर ना छोडे और एक अच्छा मसौदा बनाए जो सभी राज्योंके लिये अनिवार्य हो| सिव्हील सोसायटी ने एक मसौदा आपकी सरकार को भेजा है, उत्तराखंड का मसौदा जनहित के लिये अच्छा मसौदा हैं|

इन तीन मुद्दोंके अलावा एक और अहम मुद्दे पर मै आप का ध्यान आकर्षित करना चाहुंगा| देश मे भ्रष्टाचार की जड है हमारा कॉर्पोरेट क्षेत्र| काला एवं भ्रष्टाचार का पैसा यहांसे ही ज्यादातर निर्माण होता हैं| जल, जमीन और जंगल पर निजी कब्जा जमाने हेतू कॉर्पोरेट क्षेत्र भ्रष्टाचार को बडे पैमाने पर बढावा देता हैं| मै हैरान हुं की वामपंथी दलोंको छोड सभी राजनैतिक दल कॉर्पोरेट क्षेत्र के संरक्षण बनकर इस बात को सुनिश्‍चित कर रहे है की कॉर्पोरेट क्षेत्र लोकपाल के दायरे मे ना आये| यह दूर्भाग्यपूर्ण है और जनतंत्र की घोर विडंबना भी हैं| कॉग्रेस सहित देश की अन्य पार्टिया क्यों कॉर्पोरेट क्षेत्र को लोकपाल से बचाना चाहती हैं? इन राजनैतिक दलोंके और कॉर्पोरेट के कौनसे ऐसे संबंध हैं जिस संबंधो की वजह से इस देश के आम आदमी बजाय कॉर्पोरेट क्षेत्र के हीत की सबको चिंता लगी हुयी हैं? इस प्रश्न को लेकर मै बहुत दुखी हूं| इसका महत्व पूर्ण कारण हैं कि पर्यावरण के प्रश्न पर दुनिया के लोग चिंताग्रस्त हैं| वह पर्यावरण का असमतोल कार्पोरेट सेक्टर से जादा बढ रहा हैं| आज देश के कही गांव में पिने का पानी नही मिल रहा, पेट्रोल, डिझेल, रॉकेल, कोयाला की स्थिती को हम अनुभव कर रहे हैं| आनेवाले 150/200 सालमें देशमें बहुत बडा खतरा निर्माण होगा|

अंतत: मै आपसे प्रार्थना करूंगा के इस देश की आम जनता के प्रति अपना दायित्व आप निभाएं| उक्त चार अहम मुद्दोपर जनता के पक्ष में निर्णय हो| मै आशा करता हूं की आप शीघ्रही मेरे इस पत्र पर गौर करेंगे और इस पत्र का जवाब देंगे|

मै भगवान से प्रार्थना करता हूं की आपका अच्छा स्वास्थ एवं दीर्घायुष्य प्रदान करें|

भवदीय,

(कि.बा.उपनाम अण्णा हजारे)

12.02.2013

आबरू से खेलती डॉक्टरी उंगलियां


बलात्कार के दो दिन बाद 18 साल की वह लड़की दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल में सफेद रंग की चादर पर लेटी थी. नर्स ने आकर पहले उसकी सलवार खोली और फिर कमीज को नाभि से ऊपर खिसकाया. इसके बाद दो पुरुष डॉक्टर आए. उन्होंने लड़की की जांघों के पास हाथ लगाकर जांच शुरू की तो उसने एकदम से अपने शरीर को कड़ा कर लिया. एकाएक दस्ताने पहने हुए हाथों की दो उंगलियां उसके वजाइना (योनि) के अंदर पहुंच गईं. वह दर्द से कराह उठी. डॉक्टर कांच की स्लाइडों पर उंगलियां साफ करके उसे अकेला छोड़कर वहां से चलते बने. उन्होंने जांच से पहले न तो उसकी अनुमति ली और न ही उसे बताया कि उन्होंने क्या और क्यों किया. यह टू फिंगर टेस्ट (टीएफटी) था.

देश में प्रचलित टीएफटी से बलात्कार पीड़ित महिला की वजाइना के लचीलेपन की जांच की जाती है. अंदर प्रवेश की गई उंगलियों की संख्या से डॉक्टर अपनी राय देता है कि ‘महिला सक्रिय सेक्स लाइफ’ में है या नहीं. भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है, जो डॉक्टरों को ऐसा करने के लिए कहता है. 2002 में संशोधित साक्ष्य कानून बलात्कार के मामले में सेक्स के पिछले अनुभवों के उल्लेख को निषिद्ध करता है. सुप्रीम कोर्ट ने 2003 में टीएफटी को ‘दुराग्रही’ कहा था. ज्यादातर देशों ने इसे पुरातन, अवैज्ञानिक, निजता और गरिमा पर हमला बताकर खत्म कर दिया है.

जस्टिस जे.एस. वर्मा समिति ने भी इसकी तीखी आलोचना की है. समिति ने महिलाओं की सुरक्षा को लेकर आपराधिक कानूनों पर 23 जनवरी को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी. रिपोर्ट के मुताबिक, “सेक्स अपराध कानून का विषय है, न मेडिकल डायग्नोसिस का.” रिपोर्ट में कहा गया है कि महिला की वजाइना के लचीलेपन का बलात्कार से कोई लेना-देना नहीं है. इसमें टू फिंगर टेस्ट न करने की सलाह दी गई है. रिपोर्ट में डॉक्टरों के यह पता लगाने पर भी रोक लगाने की बात कही गई है जिसमें पीड़िता के ‘यौन संबंधों में सक्रिय होने’ या न होने के बारे में जानकारी दी जाती है.

इस तरह के टेस्ट के विरोध में आवाज उठने लगी है. 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस की परेड के बाद हजारों गुस्साए लोगों ने दिल्ली की सड़कों पर नारा लगाया, “टू फिंगर टेस्ट बंद करो.” इसके खिलाफ हस्ताक्षर अभियान भी चलाए जा रहे हैं. ऑल इंडिया प्रेग्रेसिव वूमंस एसोसिएशन की राष्ट्रीय सचिव कविता कृष्णन कहती हैं, “सरकार इस अपमानजनक प्रक्रिया को बंद करे.”

महाराष्ट्र में वर्धा के सेवाग्राम में महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज में फॉरेंसिक एक्सपर्ट और वकील डॉ. इंद्रजीत खांडेकर कहते हैं, “उस टेस्ट का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है.” वे कहते हैं कि उंगलियों के साइज के हिसाब से नतीजे बदल जाते हैं. हाइमन और वजाइना से जुड़ी पुरानी दरार भी यह साबित नहीं करती है कि लड़की या महिला की सक्रिय सेक्स लाइफ रही है. बंगलुरू के वैदेही इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज में फॉरेंसिक एक्सपर्ट और कानून के जानकार डॉ. एन. जगदीश के मुताबिक इस तरह की दरार कसरत, खेल-कूद, चोट, किसी लकड़ी या उंगलियों के कारण भी पड़ सकती है. वे कहते हैं, “कुछ महिलाओं की हाइमन इतनी लचीली होती है कि सेक्स के दौरान भी आसानी से नहीं टूटती.”

इस समस्या की जड़ में अंग्रेजी शासन के कानूनी अवशेष हैं, जिनकी नई सदी में कोई तुक नहीं है. वे पूरी तरह तर्कों से परे हैं. जेएनयू के सेंटर फॉर लॉ ऐंड गवर्नेंस में पढ़ाने वाली प्रतीक्षा बख्शी कहती हैं, “फ्रांसीसी मेडिकल विधिवेत्ता एल. थोइनॉट ने 1898 के आसपास नकली और असली कुंआरी लड़कियों में फर्क करने वाली जांच के लिए इस तरह का टेस्ट ईजाद किया था. नकली कुंआरी उस महिला को कहा जाता था, जिसकी हाइमन लचीलेपन के कारण सेक्स के बाद भी नहीं टूटती है.” भारत में मेडिकल विधिशास्त्र की लगभग हर पुस्तक में आंख मूंदकर टीएफटी को बढ़ावा दिया गया है, जिनमें जयसिंह पी. मोदी की लिखी किताब ए टेक्स्ट बुक ऑफ मेडिकल ज्यूरिसप्रूडेंस ऐंड टॉक्सीकोलॉजी भी शामिल है.

चरित्र हनन का हथियार
हालांकि बलात्कार के मुकदमों में मेडिकल सबूत बहुत अहम होते हैं, लेकिन बचाव पक्ष के वकील इस तरह की पुस्तकों और डॉक्टरों की राय का इस्तेमाल यह साबित करने के लिए करते हैं कि महिला का चरित्र अच्छा नहीं है. बख्शी कहती हैं, “वे पूछते हैं कि बलात्कार के समय वह किस पोजीशन में थी, यह कितने समय तक चला. अगर महिला का शीलभंग हुआ है तो वे महिला के चरित्र हनन के लिए हजारों बेतुके सवाल पूछते हैं.” बख्शी अपने शोध के लिए तमाम जिला अदालतों में बलात्कार के मुकदमों के दौरान उपस्थित रही हैं. 1872 के भारतीय साक्ष्य कानून की धारा 155(4), जो 2002 तक चली, कहती है, “जब किसी आदमी पर बलात्कार या बलात्कार की कोशिश का मुकदमा चलाया जाता है तो यह दिखाया जा सकता है कि बलात्कार का मुकदमा करने वाली महिला का चरित्र अच्छा नहीं था.” इस धारा को हटा दिया गया, लेकिन वह मानसिकता अब भी बनी हुई है.

अंतरराष्ट्रीय एनजीओ ह्यूमन राइट्स वॉच की ओर से 2010 में दी गई रिपोर्ट, ‘डिग्निटी ऑन ट्रायल’ दिखाती है कि किस तरह जज महिला के ‘चरित्र’ को फिंगर टेस्ट से जोड़ते हैं. 2009 में मुसौद्दीन अहमद के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि 13 साल की मीरा बेगम अच्छे चरित्र वाली महिला नहीं थी, क्योंकि उसके टीएफटी से पता चला कि वह पहले से सक्रिय सेक्स लाइफ जी रही थी.

2007 में हिमाचल प्रदेश हाइकोर्ट ने यतिन कुमार को दोषी करार दिया क्योंकि मेडिकल रिपोर्ट से पता चलता था कि पीड़ित महिला को ‘सेक्स की आदत’ नहीं थी क्योंकि डॉक्टर अपनी दो उंगलियों  को ‘मुश्किल’ से प्रवेश करा सका, जिसके कारण खून बह निकला. 2006 में पटना हाइकोर्ट में हरे कृष्णदास को गैंगरेप के मामले में बरी कर दिया गया क्योंकि डॉक्टर ने जांच में पाया कि पीड़िता की हाइमन पहले से भंग थी और वह सक्रिय सेक्स लाइफ जी रही थी. जज का कहना था कि महिला का कैरेक्टर ‘लूज़’ है.

समस्या यह है कि देश भर के अस्पताल डॉक्टरों से मेडिकल परीक्षा के रूप में पूछते हैं कि हाइमन के सुराख में एक उंगली गई या दो उंगली, वजाइना का प्रवेश द्वार तंग था या फैला हुआ, चोटें ताजा थीं या पुरानी. अगर डॉक्टर ‘नो रेप’ या ‘बलात्कार की कोशिश’ लिखकर देता है तो आरोपी को अदालत में पहले ही फायदा मिल जाता है.

डॉक्टर अगर यह लिखकर देता है कि ‘महिला की पहले से ही सक्रिय सेक्स लाइफ थी’ तो इसे महिला के चरित्र हनन और उसके बयान को गलत साबित करने के लिए बतौर सबूत प्रयोग किया जाता है. डॉ. जगदीश इसके लिए देश में बलात्कार की जांच के लिए आधुनिक तरीकों के अभाव को जिम्मेदार बताते हैं. दुनिया भर में सिर्फ एक-तिहाई बलात्कार पीड़ित महिलाओं में ही शारीरिक चोट के निशान दिखाई देते हैं. हो सकता है, महिला बेहोश रही हो, मेडिकल जांच देर से की गई हो. तब इस तरह के निशान नहीं मिल सकते हैं. वीर्य धुल गया हो या हो सकता है बलात्कारी ने सेक्स के समय कंडोम का इस्तेमाल किया हो. अदालतें आमतौर पर इन बातों को नहीं मानतीं.

डॉक्टर बढ़ाते हैं तकलीफ
दिल्ली गैंगरेप के समय लोग तब दहल गए, जब लड़की के दोस्त ने टीवी पर आकर बताया कि अस्पताल में डॉक्टरों का व्यवहार कितना असंवेदनशील था. डॉ. खांडेकर कहते हैं, “अनुभवहीन डॉक्टरों का होना एक बड़ी समस्या है क्योंकि पीड़ित को उनकी वजह से और भी तकलीफें झेलनी पड़ती हैं और जरूरी सबूत नष्ट हो जाते हैं. एमबीबीएस की पढ़ाई में फॉरेंसिक साइंस के बारे में बहुत कम बताया जाता है.”

कानूनी बदलावों से भी समस्या बढ़ी है. 1997 में कानून बनाया गया कि सिर्फ महिला डॉक्टर ही बलात्कार के मामलों में मेडिकल जांच कर सकती हैं. लेकिन महिला डॉक्टरों की कमी को देखते हुए 2005 में फिर से कानून में संशोधन हुआ. अब किसी भी लिंग और किसी भी विषय का रजिस्टर्ड मेडिकल डॉक्टर इस तरह की जांच कर सकता है.

हालांकि इसके लिए पीड़िता की अनुमति जरूरी है. इस तरह के बदलावों ने इतनी संवेदनशील जांच के लिए ज्यादा डॉक्टर उपलब्ध करा दिए हैं. लेकिन उनमें से बहुतों के पास योग्यता ही नहीं है.

भारत में बलात्कार की शिकार होने वाली महिला को दो बार तकलीफ झेलनी पड़ती है. पहली बार वह तब तकलीफ झेलती है, जब उसका बलात्कार होता है और दूसरी बार हमारी व्यवस्था उसे परेशान करती है. इस बीच तमाम एजेंसियां दखल देती हैं और वे पूर्वाग्रह की अपनी नजर से पीड़िता को देखती हैं. लेकिन बलात्कार के मामलों में डॉक्टर जिस तरह की भूमिका निभाते हैं, वह देश में बलात्कार के बढ़ते मामलों को देखते हुए बेहद चिंता का विषय है.



और भी... http://aajtak.intoday.in/story/rape-evidence-insult-after-assault-1-721275.html

अन्ना हजारे पिता तुल्य है हमारे आदर्श : मनीष सिसौदिया


आम आदमी पार्टी (आप) के राष्ट्रीय प्रवक्ता मनीष सिसौदिया ने कहा, कैबिनेट में पेश किए गए सरकार के लोकपाल बिल से आमजन को कोई लाभ नहीं मिलेगा। जनलोकपाल बिल ही भ्रष्टाचार मिटा सकता है। अन्ना हजारे को पिता तुल्य और आदर्श बताते हुए उन्होंने लोकसभा चुनाव में सभी सीटों पर प्रत्याशी उतारने का दावा किया।

नगर स्थित पार्टी कार्यालय पर सोमवार को प्रेस कांफ्रेस में मनीष सिसौदिया ने कहा, अन्ना हजारे के नेतृत्व में बना जनलोकपाल बिल का खाका सशक्त था। यदि भ्रष्टाचार मिटाना है तो उसी जनलोकपाल को लागू करना होगा। सरकार ने जिस लोकपाल को कैबिनेट में मंजूरी दिलाई है, वह निर्बल है। आमजन को उससे कोई लाभ नहीं मिलेगा और न ही भ्रष्टाचार मिलेगा। उन्होंने कहा, लोकसभा चुनाव को लेकर पार्टी की पूरी तैयारी है। प्रदेश की सभी सीटों पर उम्मीदवारों को उतारा जाएगा। जनता विपक्षी दलों को इस बार उनकी औकात बता देगी। उन्होंने भरोसा दिलाया, आप भ्रष्ट अफसरों और भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए मैदान में आई है। जनता को उसका हक और मूलभूत सुविधाएं दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाएगी। अन्ना हजारे द्वारा पार्टी अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल को लालची बताए जाने के सवाल पर बोले, अन्ना हजारे हमारे पिता तुल्य और आदर्श हैं। हजारे अराजनैतिक रूप से भ्रष्टाचार मिटाने के पक्षधर हैं, जबकि पार्टी राजनीति के अंदर रहकर यह काम करना चाहती है। इस मौके पर एडवोकेट सोमेंद्र सिंह ढाका, विजयश्री, अनुज ढाका, अजीत कुमार, मनोज आर्य आदि बड़ी संख्या में कार्यकर्ता उपस्थित रहे।

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