सरकार इतनी ढिठाई से संवैधानिक संस्थाओं के साथ खिलवाड़ कर रही है कि उसके इस तरह के किसी भी नए दुस्साहस पर किसी को हैरानी नहीं होती। सबकुछ खुल्लमखुल्ला करने की उसकी प्रवृत्ति दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। लेकिन उसके अपने हताश करने वाले स्टैंडर्ड्स से भी देखें तो चुनाव आयोग को अपना पायदान बनाने की कोशिश घिनौनी है।
सब जानते हैं कि देश के कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने उत्तर प्रदेश में अपनी पत्नी के चुनाव प्रचार करने के दौरान किस तरह खुलेआम आयोग को चुनौती दी। यह तक भूल गए कि एक उम्मीदवार का पति होने के अलावा वह एक 'जिम्मेदार' मंत्री भी हैं। इस प्रकरण और इससे चुनाव आयोग को कैसे निपटना चाहिए था, पर काफी कुछ लिखा जा चुका है। बहुत सारे लोगों के साथ मुझे भी लगा था कि आयोग का रवैया लिजलिजा था।
हालांकि, कई विशेषज्ञों ने मुझे बताया कि मामले को ज्यादा तूल न देकर आयोग ने सही किया, क्योंकि इससे अपराध करने वाले से ज्यादा दूसरों को नुकसान पहुंचने की आशंका थी। खैर छोड़िए, यह एक अलग बहस है। इस ब्लॉग में मैं खुद को चुनाव आयोग की तरफ सरकार की ओर से झूठी सहानुभूति दिखाने की कोशिश और 'आदर्श आचार संहित' को वैधानिक दर्जा देने की कवायद तक ही सीमित रखूंगा।
कोई बेवकूफ ही इस तर्क को मानेगा कि इससे चुनाव आयोग मजबूत होगा। आदर्श आचार संहिता की खूबसूरती ही यह है कि यह मॉडल से ज्यादा मॉरल (आदर्श) है। सुप्रीम कोर्ट तक कह चुका है कि कोड के बारे में चुनाव आयोग का मत अंतिम है और उसका पालन होना चाहिए। काफी समय से इसकी अपने-अपने हिसाब से व्याख्या करने की कोशिश की जा रही है, लेकिन अमूमन इसका पालन होता रहा है। सभी पार्टियां इस 'लक्ष्मण रेखा' का सम्मान करती रही हैं।
इसका समाधान यही है कि पार्टियां खुद ही आत्मनिरीक्षण करें और सोचें कि लोकतंत्र के लिए क्या अच्छा है। इसके बाद अपने फायदे के लिए इसकी अवहेलना या गलत व्याख्या न करें। कोड को वैधानिक दर्जा देना निश्चित रूप से समस्या का हल नहीं है। उस परिस्थिति की कल्पना कीजिए कि हर बार इसके उल्लंघन के बाद मामले अदालतों में जाएं और वहां काफी समय तक लंबित पड़े रहें। इसका परिणाम यह होगा कि तुरंत फैसले के आभाव में आचार संहिता का उल्लंघन करने वाला सभी तरह के फायदे उठाएगा और शायद जीत भी जाएगा। इसलिए मेरा मत है कि कोड को वैधानिक दर्जे से चुनाव आयोग को कमजोर बनाने की मंशा रखने वाले को छोड़कर किसी का भला नहीं होगा।
यह भी तर्क दिया जा रहा है कि कोड विकास विरोधी है। यह भी केवल ऊपर से आकर्षक दिखने वाली दलील है। चुनाव हमेशा किसी भी चुनी हुई सरकार के कार्यकाल के अंतिम दिनों में होते हैं और आचार संहिता उस दौरान केवल 2-3 महीनों के लिए लागू होती है। क्या हम यह कहना चाह रहे हैं कि सरकार के 95% कार्यकाल के दौरान विकास का कोई काम नहीं होगा और सबकुछ वह अंतिम तीन महीने में ही करती है, जिसे चुनाव आयोग रोकने की कोशिश कर रहा है? यह बेतुका है। हकीकत यह है कि पहले से चल रही योजनाएं और ऐसी योजनाएं जिनसे सभी पार्टियां समान रूप से प्रभावित होती हैं, आचार संहिता के दायरे में नहीं आतीं।
आयोग के पास इस तरह के सवालों की भरमार होती है कि क्या आचार संहिता के दायरे में है और क्या नहीं, जबकि पोल पैनल की तरफ से कैबिनेट सेक्रेटरी को स्पष्ट निर्देश होता है कि जब तक तय मानकों का पालन किया जा रहा है, कोई भी चीज उसके संज्ञान में लाने की जरूरत नहीं है। आदर्श आचार संहिता सिर्फ इस पर बंदिश लगाती है कि ऐसे वादे नहीं किए जाएंगे, जिनसे मतदाता प्रभावित हों। ऐसा सबको एक समान अवसर मुहैया कराने के लिए किया जाता है। इससे कोई असहमत कैसे हो सकता है?
इसके बावजूद सरकार बेचैन है। चुनाव आयोग को मजबूत बनाने के बहाने उस संस्था को दंतहीन बनाने पर तुली है, जिसे दुनिया में सबसे बेहतरीन चुनाव कराने के लिए जाना जाता है। हालांकि, एक के बाद एक सरकार के दिग्गज कल इस बात से इनकार करते रहे कि चुनाव आयोग को कमजोर करने की कोशिश हो रही है। उन्होंने तो यहां तक कहा कि आदर्श आचार संहिता के वैधानिक दर्जे पर चर्चा 22 फरवरी को जीओएम की होने वाली मीटिंग के एजेंडे में नहीं है। बहरहाल, सारा भेद मीटिंग का एजेंडा मीडिया के हाथ लगने से खुल गया। इसके एक नोट में इस मुद्दे को चर्चा के लिए रेखांकित करते हुए कहा गया है, 'चेयरमैन का मानना है कि आचार संहिता डिवेलपमेंट प्रॉजेक्ट्स को रोकने की एक बड़ी युक्ति है, इसलिए कानून मंत्री के आग्रह से सहमति जताते हुए इसे एजेंडे में शामिल किया जाता है।' यह भी सलाह दी गई है कि कानून मंत्रालय चुनाव आयोग के कार्यकारी निर्देशों को वैधानिक दर्जा देने के लिए जरूरी सभी पहलुओं पर विचार कर सकता है। कानून मंत्रालय के सेक्रेटरी से आग्रह किया गया है कि वह जीओएम के सामने प्रजेंटेशन दें कि इस मसले पर क्या प्रगति हुई है।
जैसा कि पहले भी कहा चुका हूं कि यह तर्क पूरी तरह से फर्जी है। चूंकि इस एजेंडे को कानून मंत्री बढ़ा रहे हैं, इसलिए यह प्रेरित भी लग रहा है। आखिर वह चुनाव आयोग से निजी तौर पर खार जो खाए बैठे हैं। लेकिन, जीओएम में विद्वान और बुद्धिमान मंत्री भी हैं। मुझे पूरा भरोसा है कि वे यह सब जरूर देखेंगे। इसके अलावा, जैसा कि मैं पिछले ब्लॉग में भी कह चुका हूं कि अब आम आदमी भी सबकुछ देख रहा है। आम आदमी यह भी देख रहा है कि कौन देश के शुभचिंतक बनने की आड़ में हमारे लोकतंत्र को मजबूत करने वाली संस्थाओं को कमजोर कर रहे हैं। कम से कम अपने भले के लिए ही इन दिग्गजों को अपनी नादानी समझनी चाहिए और कदम पीछे खींच लेने चाहिए।
SEND THIS POST TO YOUR FACEBOOK FRIENDS/GROUPS/PAGESसब जानते हैं कि देश के कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने उत्तर प्रदेश में अपनी पत्नी के चुनाव प्रचार करने के दौरान किस तरह खुलेआम आयोग को चुनौती दी। यह तक भूल गए कि एक उम्मीदवार का पति होने के अलावा वह एक 'जिम्मेदार' मंत्री भी हैं। इस प्रकरण और इससे चुनाव आयोग को कैसे निपटना चाहिए था, पर काफी कुछ लिखा जा चुका है। बहुत सारे लोगों के साथ मुझे भी लगा था कि आयोग का रवैया लिजलिजा था।
हालांकि, कई विशेषज्ञों ने मुझे बताया कि मामले को ज्यादा तूल न देकर आयोग ने सही किया, क्योंकि इससे अपराध करने वाले से ज्यादा दूसरों को नुकसान पहुंचने की आशंका थी। खैर छोड़िए, यह एक अलग बहस है। इस ब्लॉग में मैं खुद को चुनाव आयोग की तरफ सरकार की ओर से झूठी सहानुभूति दिखाने की कोशिश और 'आदर्श आचार संहित' को वैधानिक दर्जा देने की कवायद तक ही सीमित रखूंगा।
कोई बेवकूफ ही इस तर्क को मानेगा कि इससे चुनाव आयोग मजबूत होगा। आदर्श आचार संहिता की खूबसूरती ही यह है कि यह मॉडल से ज्यादा मॉरल (आदर्श) है। सुप्रीम कोर्ट तक कह चुका है कि कोड के बारे में चुनाव आयोग का मत अंतिम है और उसका पालन होना चाहिए। काफी समय से इसकी अपने-अपने हिसाब से व्याख्या करने की कोशिश की जा रही है, लेकिन अमूमन इसका पालन होता रहा है। सभी पार्टियां इस 'लक्ष्मण रेखा' का सम्मान करती रही हैं।
इसका समाधान यही है कि पार्टियां खुद ही आत्मनिरीक्षण करें और सोचें कि लोकतंत्र के लिए क्या अच्छा है। इसके बाद अपने फायदे के लिए इसकी अवहेलना या गलत व्याख्या न करें। कोड को वैधानिक दर्जा देना निश्चित रूप से समस्या का हल नहीं है। उस परिस्थिति की कल्पना कीजिए कि हर बार इसके उल्लंघन के बाद मामले अदालतों में जाएं और वहां काफी समय तक लंबित पड़े रहें। इसका परिणाम यह होगा कि तुरंत फैसले के आभाव में आचार संहिता का उल्लंघन करने वाला सभी तरह के फायदे उठाएगा और शायद जीत भी जाएगा। इसलिए मेरा मत है कि कोड को वैधानिक दर्जे से चुनाव आयोग को कमजोर बनाने की मंशा रखने वाले को छोड़कर किसी का भला नहीं होगा।
यह भी तर्क दिया जा रहा है कि कोड विकास विरोधी है। यह भी केवल ऊपर से आकर्षक दिखने वाली दलील है। चुनाव हमेशा किसी भी चुनी हुई सरकार के कार्यकाल के अंतिम दिनों में होते हैं और आचार संहिता उस दौरान केवल 2-3 महीनों के लिए लागू होती है। क्या हम यह कहना चाह रहे हैं कि सरकार के 95% कार्यकाल के दौरान विकास का कोई काम नहीं होगा और सबकुछ वह अंतिम तीन महीने में ही करती है, जिसे चुनाव आयोग रोकने की कोशिश कर रहा है? यह बेतुका है। हकीकत यह है कि पहले से चल रही योजनाएं और ऐसी योजनाएं जिनसे सभी पार्टियां समान रूप से प्रभावित होती हैं, आचार संहिता के दायरे में नहीं आतीं।
आयोग के पास इस तरह के सवालों की भरमार होती है कि क्या आचार संहिता के दायरे में है और क्या नहीं, जबकि पोल पैनल की तरफ से कैबिनेट सेक्रेटरी को स्पष्ट निर्देश होता है कि जब तक तय मानकों का पालन किया जा रहा है, कोई भी चीज उसके संज्ञान में लाने की जरूरत नहीं है। आदर्श आचार संहिता सिर्फ इस पर बंदिश लगाती है कि ऐसे वादे नहीं किए जाएंगे, जिनसे मतदाता प्रभावित हों। ऐसा सबको एक समान अवसर मुहैया कराने के लिए किया जाता है। इससे कोई असहमत कैसे हो सकता है?
इसके बावजूद सरकार बेचैन है। चुनाव आयोग को मजबूत बनाने के बहाने उस संस्था को दंतहीन बनाने पर तुली है, जिसे दुनिया में सबसे बेहतरीन चुनाव कराने के लिए जाना जाता है। हालांकि, एक के बाद एक सरकार के दिग्गज कल इस बात से इनकार करते रहे कि चुनाव आयोग को कमजोर करने की कोशिश हो रही है। उन्होंने तो यहां तक कहा कि आदर्श आचार संहिता के वैधानिक दर्जे पर चर्चा 22 फरवरी को जीओएम की होने वाली मीटिंग के एजेंडे में नहीं है। बहरहाल, सारा भेद मीटिंग का एजेंडा मीडिया के हाथ लगने से खुल गया। इसके एक नोट में इस मुद्दे को चर्चा के लिए रेखांकित करते हुए कहा गया है, 'चेयरमैन का मानना है कि आचार संहिता डिवेलपमेंट प्रॉजेक्ट्स को रोकने की एक बड़ी युक्ति है, इसलिए कानून मंत्री के आग्रह से सहमति जताते हुए इसे एजेंडे में शामिल किया जाता है।' यह भी सलाह दी गई है कि कानून मंत्रालय चुनाव आयोग के कार्यकारी निर्देशों को वैधानिक दर्जा देने के लिए जरूरी सभी पहलुओं पर विचार कर सकता है। कानून मंत्रालय के सेक्रेटरी से आग्रह किया गया है कि वह जीओएम के सामने प्रजेंटेशन दें कि इस मसले पर क्या प्रगति हुई है।
जैसा कि पहले भी कहा चुका हूं कि यह तर्क पूरी तरह से फर्जी है। चूंकि इस एजेंडे को कानून मंत्री बढ़ा रहे हैं, इसलिए यह प्रेरित भी लग रहा है। आखिर वह चुनाव आयोग से निजी तौर पर खार जो खाए बैठे हैं। लेकिन, जीओएम में विद्वान और बुद्धिमान मंत्री भी हैं। मुझे पूरा भरोसा है कि वे यह सब जरूर देखेंगे। इसके अलावा, जैसा कि मैं पिछले ब्लॉग में भी कह चुका हूं कि अब आम आदमी भी सबकुछ देख रहा है। आम आदमी यह भी देख रहा है कि कौन देश के शुभचिंतक बनने की आड़ में हमारे लोकतंत्र को मजबूत करने वाली संस्थाओं को कमजोर कर रहे हैं। कम से कम अपने भले के लिए ही इन दिग्गजों को अपनी नादानी समझनी चाहिए और कदम पीछे खींच लेने चाहिए।