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भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत समर्थक

देश में घोटाले या फिर घोटालों में देश


बस कुछ ही दिनों में संपन्न हो जायेगा एक और विधानसभा चुनाव। सत्ता सुख भोगने के लिए सियासत की कुर्सी पर काबिज होगा एक नया घोटालेबाज। जो अपनी करामाती करतूतों से पहले प्रदेश, फिर देश और बाद में गैर देशों से मिलने वाली सहायता राशि को हजम करने के पैंतरे सीखेगा। जहां देश आज तक घोटालों की जांच झेल रहा है वहीं आप सोचो कि इस बार कौन सा नया घोटाला सामने आयेगा ? मैं मानता हूँ कि वर्तमान समय में मंहगाई और बेरोजगारी से बडा मुद्दा कोई नहीं हैं, लिहाजा अगला घोटाला युवा पीढी को बेचने का सामने आ सकता है। हो सकता है मेरे देश के नेता भूंख से बिलबिलाते बच्चों के शारीरिक अंगों का सौदा अमीर बाप की औलादों के लिए कर दें, या फिर आर्थिक तंगी की मार झेल रहीं मेरे देश की मां-बहनों की आबरू किसी गैर मुल्क के शेख के हाथों गिरवी रख दें। कुछ भी कर सकते हैं ये नेता, क्योंकि इन्हें सिर्फ पैसों की भूंख है और इसे मिटाने के लिए ये अपनी मां का सौदा करने भी नहीं चूकेंगे और फिर धरती मां व भारत मां को तो बेच ही चुके हैं। आइए, हम सभी देशवासी एक और घोटाले की मार को सहने के लिए खुद को तैयार करें और नेताओं की जय-जयकार करें।

जीप घोटाला – स्वतंत्र भारत का पहला घोटाला –

सन 1947 में देश को स्वतंत्रता मिली और उसके साथ ही देश भारत और पाकिस्तान में बंट गया। उसके मात्र एक साल बाद यानी 1948 में पाकिस्तानी सेना ने भारतीय सीमा में घुसपैठ करना शुरू कर दिया। उस घुसपैठ को रोकने के लिए भारतीय सैनिक जी-जान से जुट गए। भारतीय सेना के लिए जीपें खरीदने को भार व्हीके कृष्णा मेनन को, जो कि उस समय लंदन में भारत के हाई कमिश्नर के पद पर थे, सौंपा गया। जीप खरीदी के लिए मेनन ने ब्रिटेन की कतिपय विवादास्पद कंपनियों से समझौते किए और वांछित औपचारिकतायें पूरी किए बगैर ही उन्हें 1 लाख 72 हजार पाउण्ड की भारी धनराशि अग्रिम भुगतान के रूप में दे दी। उन कंपिनयों को 2000 जीपों के लिए क्रय आदेश दिया गया था किन्तु ब्रिटेन से भारत में 155 जीपों, जो कि चलने की स्थिति में भी नहीं थीं, की मात्र एक ही खेप पहुंची। तत्कालीन विपक्ष ने व्हीके कृष्णा मेनन पर सन 1949 में जीप घोटाले का गभीर आरोप लगाया था। उन दिनों कांग्रेस की तूती बोलती थी और वह पूर्ण बहुमत में थी, विपक्ष में नाममात्र की ही संख्या के सदस्य थे। विपक्ष के द्वारा प्रकरण की न्यायिक जांच के अनुरोध को रद्द करके अनन्तसायनम अयंगर के नेतृत्व में एक जांच कमेटी बिठा दी गई। बाद में 30 सिम्बर 1955 सरकार ने जांच प्रकरण को समाप्त कर दिया। यूनियन मिनिस्टर जीबी पंत ने घोषित किया कि ‘‘सरकार इस मामले को समाप्त करने का निष्चय कर चुकी है। यदि विपक्षी संतुष्ट नहीं हैं तो इसे चुनाव का विवाद बना सकते हैं।‘‘ 03 फरवरी 1956 के बाद शीघ्र ही कृष्णा मेनन को नेहरू केबिनेट में बगैर किसी पोर्टफालियो का मंत्री नियुक्त कर दिया गया।

‘‘समरथ को नहिं दोस गुसाईं‘‘ यदि उस समय ही 80 लाख रूपयों के जीप घोटाले के लिए उचित कार्यवाही हुई होती तो अब तक इस देश में कुंल रूपये 91,06,03,23,43,00,000/ इक्यानबे सौ खरब के घोटाले प्रकाश में न आये होते। और मजे की बात तो यह है कि इन घोटालों के कर्ता-धर्ताओं को कभी कोई सजा भी नहीं मिली।

साइकिल घोटाला –

अब जीप के बाद बारी थी साइकिल की, जो साइकिल इंपोट्र्स घोटाले के रूप में सामने आयी। 1951 में वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के सचिव एसए वेंकटरमण थे। गलत तरीके से एक कंपनी को साइकिल आयात करने का कोटा जारी करने का आरोप लगा। इसके बाद उन्होंने रिश्वत भी ली। इस मामले में उन्हें जेल भी भेजा गया लेकिन ऐसा भी नहीं था कि हर मामले में आरोपी को भेजा ही गया।

मो0 सिराजुद्दीन एण्ड कंपनी –

साइकिल घोटाले के 6 साल बाद ही यानी 1956 में यह खबर आयी कि उडीसा के कुछ नेता व्यापारियों के काम करने के बदले उनसे दलाली ले रहे थे। जब इस संबंध में छापेमारी हुई तो पूर्वी भारत के एक बडे व्यवसायी मुहम्मद सिराजद्दीन एण्ड कंपनी के कोलकाता और उडीसा स्थित कार्यालयों में भी छापे मारे गए। पता चला कि सिराजद्दीन कई खानों का मालिक है और उसके पास से एक ऐसी डायरी बरामद हुई जिससे साबित हो रहा था कि उसके संबंध कई जाने-माने राजनेताओं से थे। लेकिन इस संबंध में भी कोई कार्यवाही नहीं हुई थी। कुछ समय बाद जब मीडिया के माध्यम से खबर फैली तब तत्कालीन खान और ईंधन मंत्री केशवदेव मालवीय ने यह स्वीकार किया कि उन्होंने उडीसा के एक खान मालिक से 10 हजार रूपये की दलाली ली थी। बाद में नेहरू के दबाव में मालवीय को इस्तीफा देना पडा था।

बीएचयू फण्ड घोटाला –

यह आजाद भारत का पहला शैक्षणिक घोटाला था। 1955 में किए गए इस घोटाले के तहत विश्वविद्यालय के अधिकारियों पर 80 लाख के करीब फंड हडपने के आरोप लगे थे। आप स्वयं अंदाजा लगा लीजिए कि उस दौर में 80 लाख की कीमत क्या रही होगी ? इस घोटाले का पर्दा फाश नहीं हो सका क्योंकि उस दौर के नेता और मंत्री इस पूरे घोटाले को घोलकर पी गए। तब भी केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी।

हरिश्चंद्र मूंध्रा काण्ड -

1957 में फीरोज गांधी ने एक सनसनीखेज काण्ड का खुलासा करके संसद को हिला दिया। उन्होंने बताया कि उद्योगपति हरिदास मूंध्रा की कई कंपनियों को मदद पहुचाने के लिए उनके शेयर भारतीय जीवन बीमा निगम एलआईसी द्वारा 1.25 करोड रूपये में खरीदवाए गए। निगम द्वारा शेयरों की बढी हुई कीमत दी गई। जांच हुई तो उस मामले में वित मंत्री टीटी कृष्णामाचारी, वित सचिव एचएम पटेल और भारतीय जीवन बीमा निगम के अध्यक्ष दोषी पाए गए। मूंध्रा पर 160 करोड रूपये के घोटाले का आरोप लगा। 180 अपराधों के मामले थे। दबाव बढा तो वित मंत्री को पद से हटा दिया गया। मूंध्रा को 22 साल की सजा हुई। कृषामाचारी को तो उनके पद से हटा दिया गया।

तेजा लोन घोटाला –

वर्ष 1960 में एक बिजनेसमैन धर्म तेजा ने एक शिपिंग कंपनी शुरू के लिए सरकार से 22 करोड रूपये का लोन लिया था। लेकिन बाद में धनराशि को देश से बाहर भेज दिया। उद्योगपति धर्म तेजा को बिना जांच के ही 20 करोड का कर्ज दिलाने का आरोप पंडित जवाहरलाल नेहरू पर लगा था। जयंत धरमतेज को जयंत जहाजरानी कंपनी की स्थापना के ऋण के रूप में 22 करोड लियोलेकिन कंपनी की स्थापना के बिना वह पैसे के साथ भाग गया था। बाद में उसे यूरोप से गिरफतार किया गया था और 6 साल की कैद हुई थी।

कैरो घोटाला –

आजाद भारत में मुख्यमंत्री पद के दुरूपयोग का यह पहला घोटाला था। 1963 में पंजाब के मुख्यमंत्री सरदार प्रताप सिंह कैरो के खिलाफ कांग्रेसी नेता प्रबोध चंद्र ने आरोप पत्र पेश किया था। आरोप पत्र में ये बातें शामिल थीं कि पंजाब के मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरो ने मुख्यमंत्री पद पर रहते, हुए अनाप-शनाप धन संपत्ति जमा की। इसमें उनके परिवारीजन शामिल थे। मसलन, अमृतसर को-आपरेटिव कोल्ड स्टोरेज लिमि0, प्रकाश सिनेमा, कैरो ब्रिक सोसायटी, मुकुट हाउस, नेशनल मोटर्स अमृतसर, नीलम सिनेमा चंडीगढ, कैपिटल सिनेमा जैसी संपत्तियों पर प्रताप सिंह कैरो के रिश्तेदारों का मालिकाना हक था। जब जांच हुई तो रिपोर्ट में कहा गया कि कैरो के पुत्र एवं पत्नी ने पैसा कमाया है लेकिन इस सब के लिए प्रताप सिंह कैरो को साफ-साफ बरी कर दिया गया।

नागरवाला काण्ड –

यह दिल्ली के पार्लियामंेट स्टीट स्थित स्टेट बैंक शाखा में लाखों रूपये मांगने का मामला था जिसमें इंदिरा गांधी का नाम भी शामिल था। हुआ यूं कि 1971 की 24 मई को दिल्ली में एसबीआई संसद मार्ग शाखा के कैशियर के पास एक फोन आया। फोन पर उक्त कैशियर से बांग्लादेश के एक गुप्त मिशन के लिए 60 लाख रूपये की मांग की गई और कहा गया कि इसकी रशीद प्रधानमंत्री कार्यालय से ली जाये। यह खबर बाद में तेजी से फैली कि फोन पर सुनी जाने वाली आवाज प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पीएन हक्सर की थी। बाद में पता चला कि यह तो कोई और ही था। रूपये लेने वाले और नकली आवाज निकालकर रूपये की मांग करने वाले व्यक्ति रूस्तम सोहराब नागरवाला को गिरफतार कर लिया गया। 1972 में संदेहास्पद स्थिति में नागरवाला की मौत हो गई। उसकी मौत के साथ ही मामले की असलियत भी जनता के सामने नहीं आ सकी। बाद में इस मामले को रफा-दफा कर दिया गया।

कुओ ऑइल डील -

इंडियन ऑइल कार्पोरेशन ने 3 लाख टन शोधित तेल और 5 लाख टन हाई स्पीड डीजल की खरीद के लिए टेंडर निकाला था। यह टेंडर हरीश जैन को मिला था। जैन की पहुंच राजनैतिक गलियारों तक थी। इस सौदे में 9 करोड रूपये से भी ज्यादा की हेराफेरी का आरोप लगा। जांच भी हुई लेकिन कहा जाता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय से ही इस मामले से जुडी फाइलें गुम कर दीं गईं। तत्कालीन पेटोलियम मंत्री पीसी सेठी को इस्तीफा देना पडा था लेकिन बाद में उन्हें दोबरा मंत्री बना दिया गया।

अंतुले ट्रस्ट

1982 में महाराष्ट के मुख्यमंत्री एआर अंतुले का नाम एक घोटाले में सामने आया। उन पर आरोप था कि उन्ने इंदिरा गांधी प्रतिभा प्रतियठान, संजय गांधी निराधार योजना, स्वावलंबन योजना आदि ट्रस्ट के लिए पैसा एकत्र किया गया था। जो लोग, खासकर बडे व्यापारी या मिल मालिक टस्ट को पैसा देते थे, उन्हें सीमेंट का कोटा दिया जाता था। ऐसे लोगों के लिए नियम-कानून में ढील दे दी जाती थी। ऐसे लोगों के लिए नियम-कानून कोई मायने नहीं रखते थे। इस मामले में मुख्यमंत्री पद से एआर अंतुले को बाद में हटना पडा था। इसके बाद इस दशक के सबसे हाई प्रोफाइल घोटाले से लोगों का परिचय हुआ।

चुरहट लाटरी काण्ड –

अर्जुन सिंह के गृह नगर चुरहट में बाल कल्याण समिति नाम की एक संस्था अपने आर्थिक साधन बढाने के लिए लाटरी भी बेचने लगी थी। इसमें शामिल लोगों पर 4 करोड रूपये खाने का आरोप लगा था। वरिष्ठ कांग्रेसी नेता अर्जुन सिंह पर भी इस मामले में शामिल होने का आरोप लगा था लेकिन इसकी जांच का नतीजा आज तक नहीं निकल सका है।

बोफोर्स घोटाला –

1987 में यह बात सामने आयी थी कि स्वीडन की हथियार कंपनी बोफोर्स ने भारतीय सेना को तोपें सप्लाई करने का सौदा हथियाने के लिए 80 लाख डालर की दलाली चुकायी थी। उस समय केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी, जिसमें प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे। स्वीडन की रेडियो ने सबसे पहले 1987 में इसका खुलासा किया था। आरोप था कि राजीव गांधी परिवार के नजदीकी बताये जाने वाले इतालवी व्यापारी ओत्तावियो क्वात्रोक्की ने इस मामने में बिचैलिए की भूमिका निभायी थी। इसके बदले में उसे दलाली का बडा हिस्सा भी मिला था। कुल 400 बोफोर्स तोपों की खरीद का सौदा 1.3 अरब डालर का था। आरोप है कि स्वीडन की हथियार कंपनी बोफोर्स ने भारत के साथ सौदे के लिए 1.42 करोड डालर की रिश्वत बांटी थी। इतिहास काफी समय तक राजीव गांधी का नाम भी इस मामले के अभियुक्तों की सूची में शामिल किए रहा लेकिन उनकी मौत के बाद नाम फाइल से हटा दिया गया। सीबीआई को इस मामले की जांच सौंपी गई लेकिन सरकारें बदलने पर सीबीआई की जांच की दिशा भी लगातार बदलती रही। एक दौर था जब जोगिंदर सिंह ने तब दावा किया था कि केस सुलझा लिया गया है। बस देरी है तो क्वात्रोक्की को प्रत्यर्पण के बाद अदालत में पेश करने की। उनके हटने के बाद सीबीआई की चाल ही बदल गई। इसी बीच कई ऐसे दांव-पेंच खेले गए कि क्वात्रोक्की को राहत मिलती गई। दिल्ली की एक अदालत ने हिंदूजा बंधुओं को रिहा कि तो सीबीआई ने लंदन की अदालत से कह दिया कि क्वात्रोक्की के खिलाफ कोई सुबूत नहीं हैं। अदालत ने क्वात्रोक्की के सील खातों को खोलने के आदेश भी जारी कर दिए। नतीजतन क्वात्रोक्की ने रातों-रात उन खातों से पैसा निकाल लिया। बाद में रेड कार्नर नोटिस के बल पर 2007 में अर्जेनटीना पुलिस ने उसे गिरफतार कर लिया। वह 25 दिन ही पुलिस की हिरासत में रहा। सीबीआई की ढील की वजह से क्वा त्रोक्की जमानत पर रिहा होकर अपने देश इटली चला गया।

सेंट किट्स घोटाला –

ऐसा माना जाता है कि सेंट किट्स घोटाला बोफोर्स घोटाले की ही उपज था। इसकी शुरूआत कुछ इस प्रकार हुई कि जब बोफोर्स का भंडा फूटा तो प्रधानमंत्री सहित अनेक अन्य बडी हस्तियों की चमडी बचाने के प्रयत्न आरंभ हुए। इस प्रयास में वरिष्ठ कांग्रेसी नेता नरसिंह राव की मुख्य भूमिका रही। मामले को दबाने के इस प्रयास को ही सेंट किट्स घोटाला कहा गया। बोफोर्स की बातें तब सामने आयीं जब राजीव गांधी के चुनाव हारने पर विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने। वीपी सिंह का मुंह बंद करने के लिए नरसिंह राव ने चंद्रास्वामी की सहायता से जाली दस्तावेज तैयार करके यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि वीपी सिंह के बेटे ने स्विस बैंकों में कई करोड रूपये जमा करके रखे हैं। बाद में पता चला कि जिन दस्तावेजों के सहारे वीपी सिंह को फंसाने की कोशिश की गई थी उन पर अंग्रेजी में हस्ताक्षर थे, जबकि सच्चाई यह थी कि वीपी सिंह किसी भी सरकारी दस्तावेज पर अंग्रेजी में हस्ताक्षर करते ही नहीं थे; नतीजतन वीपी सिंह इस मामले में निर्दोष साबित हुए थे।

जैन हवाला डायरी काण्ड –

1991 में सीबीआई ने कई हवाला आपरेटरों के ठिकानों पर छापे मारे। इस छापे में एसके जैन की डायरी बरामद हुई थी। इस तरह यह घोटाला 1996 में सामने आया। इस घोटाले में 18 मिलियन डालर घूस के रूप में देने का मामला सामने आया था जो कि बडे-बडे राजनेताओं को दी गई थी। आरोपियों में से एक लालकृष्ण आडवाणी भी थे, जो उस समय नेता विपक्ष थे। इस घोटाले से पहली बार यह बात सामने आयी कि सत्ताशीन ही नहीं, बल्कि विपक्ष के नेता भी चारों ओर से पैसा लूटने में लगे हुए हैं। दिलचस्प बात यह थी कि यह पैसा कश्मीरी आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन को गया था। कई नामों के खुलासे हुए लेकिन सीबीआई किसी के भी खिलाफ सबूत नहीं जुटा सकी थी।

बाम्बे स्टाक एक्सचेंज घोटाला (1992) –

वर्ष 1992 में शेयर बाजार में घोटाले का तहलका मचाने वाले शेयर दलाल हर्षद मेहता पर लगे आरोपों के बाद इस जेपीसी का गठन किया गया था। आरोप था कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी मारूति उद्योग लिमिटेड के पैसों का मेहता ने दुरूपयोग किया था। मेहता के वायदा सौदों का भुगतान न कर पाने की वजह से सेंसेक्स में 570 अंकों की गिरावट आई थी। लेकिन करीब पांच साल बाद 1997 में ही जाकर विशेष अदालत में प्रतिभूति घोटाले से जुडे मामलों की सुनवाई शुरू हो सकी और केन्द्रीय जांच ब्यूरो यानी सीबीआई ने करीब 34 आरोप लगाये। सीबीआई ने लगभग 72 अपराधिक मामले दर्ज करने के अलावा 600 दीवानी मामले चलाये लेकिन इनमें से महज चार मामलों में ही आरोप पत्र दाखिल किए गए। सितमबर 1999 में मेहता को मारूति उद्योग के साथ धोखाधडी के आरोप में चार साल की सजा हुई लेकिन जेपीसी की सिफारिशें न तो पूरी तरह से स्वीकार की गईं और न ही पूरी तरह से लागू हो पायीं।

सिक्यूरिटी स्कैम (1992) –

1992 में हर्षद मेहता ने धोखाधडी से बैंकों का पैसा स्टाक मार्केट में निवेश कर दिया, जिससे स्टाक मार्केट को करीब पांच हजार करोड रूपये का घाटा हुआ था।

तांसी भूमि घोटाला (1992) –

1992 में जयललिता पर तमिलनाडु की मुख्यमंत्री रहते हुए स्माज इंडस्ट्रीज कार्पोरेशन की जमीन औने-पौने दामों में जया पब्लिकेशन को आवंटित करने का आरोप लगा था। आरोपों की जांच के बाद स्थानीय पुलिस ने 1996 में जयललिता और उनकी सहेली शशिकला समेत 6 लोगों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की । इन पर राज्य को साढे तीन करोड रूपये के नुकसान का आरोप लगा। बाद में स्थोनीय अदालत ने इन सभी को आरोपी बनाते हुए कानूनी कार्यवाही शुरू की और 2000 में जयललिता को दोषी करार देते हुए तीन साल की सजा सुनाई गई। 2003 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में जयललिता को पूरी तरह से सभी आरोपोंब से बरी कर दिया गया। इस घोटाले के अलावा इनके खिलाफ लगभग आधा दर्जन दूसरे केस भी दर्ज किए गए थे लेकिन सभी की नियति तांसी जैसी ही रही।

चीनी आयात घोटाला (1994) –

नरसिम्हाराव के समय झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के नेता शैलेन्द्र महतो ने यह खुलासा किया कि उन्हें और उनके तीन सांसद साथियों को 30-30 लाख रूपये दिए गए, ताकि नरसिम्हाराव की सरकार को समर्थन देकर बचाया जा सके। यह घटना 1993 की है। इस मामले में शिबू सोरेन को भी जेल जाना पडा था। 1994 में खाद्य आपूर्ति मंत्री कल्पनाथ राय ने बाजार भाव से भी मंहगी चीनी आयात का फैसला लिया। यानी चीनी घोटाला। इस कारण सरकार को 650 करोड रूपये का चूना लगा। अंततः उन्हें अपना त्यागपत्र देना पडा। उन्हें इस मामले में जेल भी जाना पडा था।

जेएमएम सांसद घूंस काण्ड (1995)-

जुलाई 1993 में पीवी नरसिम्हाराव सरकार के खिलाफ संसद में अविश्वास प्रस्ताव 14 मतों से खारिज हो गया। आरोप लगा कि सरकार ने अपने पक्ष में वोट करने के लिए झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के चार सांसदों समेत कई सांसदों को लाखों रूपये की रिश्वत दी थी। नरसिंह राव के सत्ता से बाहर हो जाने के बाद सीबीआई ने इस मामले में राव समेत कई आरोपियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की। लगभग आठ महीने में जांच पूरी कर सीबीआई ने सांसदों की खरीद-फरोख्त के लिए नरसिंह राव, बूटा सिंहख् सतीश शर्मा, सिबू सोरेन समेत कुल 20 हाई प्रोफाइल आरोपियों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की लेकिन 1998 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में रिश्वत लेने वाले सभी नौ सांसदों के खिलाफ कार्यवाही पर रोक लगा दी। 2000 में स्थानीय अदालत ने फैसले में केवल दो आरोपियों नरसिंह राव और बूटा सिंह को दोषी करार दिया लेकिन 2002 में दिल्ली हाईकोर्ट ने इन दोनो को भी आरोपों से बरी कर दिया।

जूता घोटाला (1995) –

90 के दशक में घोटाले भी अजीबोगरीब शक्ल लेने लगे, जैसे – जूता घोटाला। सोहिन दया नामक एक व्यापारी ने मेट्रो शूज के रफीक तेजानी और मिलानो शूज के किशोर सिगनापुरकर के साथ मिलकर कई सारी फर्जी चमडा को-आपरेटिव सोसायटियां बनायी और सरकार धन लूटा। 1995 में इसका खुलासा हुआ और बहुत सारे सरकारी अफसर, महाराष्ट्र स्टेट फाइनेंस काॅपरेशन के अफसर, सिटी बैंक, बैंक आफ ओमान, देना बैंक आदि भी इस मामले में लिप्त पाये गए। इन सबके खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया गया लेकिन कोई नतीजा सामने नहीं आया।

यूरिया घोटाला (1996) – 1996 के यूरिया घोटाले में पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव के पुत्र पीवी प्रभाकर राव का नाम सामने आया। बात 1996 की है जब देश में यूरिया की आपूर्ति करने के लिए एनएफएल यूरिया की 2 लाख टन की वैश्विक निविदा मंगाई गई थी। इस सौदे में बिना किसी बैंक गारंटी के कंपनी को 133 करोड रूपये का आवंटन कर दिया गया। नेशनल फर्टिलाइजर के एमडी सीएस रामकृष्णन ने कई अन्य व्यापारियों, जो कि नरसिंह राव के नजदीकी थी, के साथ मिलकर 2 लाख टन यूरिया आयात करने के मामले में सरकार को 133 करोड रूपये का चूना लगा दिया। सीबीआई को शक था कि इन सबमें प्रभाकर का हाथ है, बावजूद इसके प्रधानमंत्री के चलते प्रभाकर पर किसी ने हाथ तक नहीं डाला।

सुखराम काण्ड (1996) –

यह एकमात्र मामला है जिसमें हाई प्रोफाइन आरोपी को सजा हुई है। 1996 में सीबीआई ने तत्कालीन सूचना मंत्री सुखराम के सरकारी आवास पर छापा मारकर 2.45 करोड नकद बरामद किए थे। उसी दिन हिमाचल प्रदेश के मण्डी स्थित उनके घर पर छापे में सीबीआई को 1.16 करोड रूपये मिले। इसके आधार पर सीबीआई ने आय से अधिक संपत्ति का केस दर्ज कर जांच शुरू की। सुखराम के खिलाफ दिल्ली की तीस हजारी अदालत ने 1997 में चार्जशीट दाखिल कर दी थी। लगभग 4 करोड की नकदी बरामद होने के बावजूद अदालत में 12 साल तक सुनवाई चलती रही। अंततः 2009 में उन्हें 3 साल की सजा सुनाई गई। वैसे सुखराम ने इस फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील की थी और जमानत पर रिहा हो गए।

चारा घोटाला (1996) –

1991 में लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद पशुपालन विभाग में हुए 950 करोड रूपये से अधिक के घोटाले की जांच पटना हाई कोर्ट के आदेश के बाद 1996 में शुरू हुई। इस मामले में सीबीआई ने 64 अलग-अलग मामले दर्ज किए। इन सभी की जांच कर 2003-2004 में आरोपियों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल कर दी। इनमें 37 मुकदमों में अदालत अब तक 350 से अधिक आरोपियों को सजा सुना चुकी है। हालांकि जिस मामले में लालू यादव आरोपी है, उसमें अभी तक अदालत में सुनवाई चल रही है।

पेट्रोल पंप आवंटन घोटाला (1997) –

पीवी नरसिंह राव सरकार में पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्री रहे सतीश शर्मा पर पेट्रोल पंप आवंटन का आरोप लगा। 1997 में सीबीआई ने शर्मा पर 15 केस दर्ज किए लेकिन सीबीआई को शर्मा के खिलाफ चार्ज शीट दाखिल करने के लिए गृह मंत्रालय के जरूरी अनुमति नहीं मिली। इसके आधार पर नवम्बर 2004 में सीबीआई अदालत से सभी 15 मामलों को बंद करने की अर्जी लगाई। सतीश शर्मा पेट्रोल पंप आवंटन के घोटाले के आरोपों बेदाग बच निकले।

तहलका काण्ड (2001) –

तब तक देश 21वीं सदी में पहुंच चुका था। अब घोटाले कैमरे पर भी होने लगे थे और सीधे दुनिया ने इसे होते हुए देखा। इसका एक उदाहरण तहलका काण्ड है। एक मीडिया हाउस तहलका के स्टिंग आपरेशन ने यह खुलासा किया कि कैसे कुछ वरिष्ठ नेता रक्षा समझौते में गडबडी करते हैं। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष को रिश्वत नेते हुए लोगों ने टेलीविजन और अखबारों में देखा। इस घोटाले में तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज और भारतीय नौ-सेना के पूर्व एडमिरल सुशील कुमार का नाम भी सामने आया। इस मामले में अटल बिहारी वाजपेयी ने जॉर्ज फर्नांडीज का इस्तीफा मंजूर करने से इंकार कर दिया। हालांकि बाद में जॉर्ज ने इस्तीफा दे दिया।

बराक मिसाइल घोटाला (2001) –

बराक मिसाइल रक्षा सौदे में भ्रष्टाचार का एक और नमूना बराक मिसाइल की खरीददारी में देखने को मिला। इसे इजराइल से खरीदा जाना था सिकी कीमत लगभग 270 मिलियन डालर थी। इस सौदे पर डीआरडीपी के तत्कालीन अध्यक्ष डा0 एपीजे अब्दुल कलाम ने भी आपत्ति दर्ज करायी थी। फिर भी यह सौदा हुआ। इस मामले में एफआईआर भी दर्ज हुई। एफआईआर में समता पार्टी के पूर्व कोषाध्यक्ष आरके जैन की गिरफतारी भी हुई। जॉर्ज फर्नांडीज, जया जेटली और नौसेना के पूर्व अधिकारी सुरेश नंदा के खिलाफ प्राथमिकी भी दर्ज हुई। सुरेश नंदा पूर्व नौ सेना प्रमुख एसएम नंदा के बेटे हैं। जांच आज भी जारी है।

स्टाम्प पेपर घोटाला (2003) –

वर्ष 2003 में 30 हजार करोड रूपये का बडा घोटाला सामने आया। इसके पीछे अब्दुल करीम तेलगी को मास्टर माइंड बताया गया। इस मामले में उच्च पुलिस अधिकारी से लेकर राजनेता तक शामिल थे। तेलगी की गिरफतारी तो जरूर हुई, लेकिन इस घोटाले के कुछ और अहम खिलाडी साफ बच निकलने में अब तक कामयाब हैं।

तज कारिडोर मामला (2003) –

ठसी कडी में एक और घोटाला सामने आया ताज कारिडोर का। 175 करोड रूपये के इस घोटाले में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती पर लगातार तलवार लटकी और अब भी लटकी हुई है। सीबीआई के पास यह मामला अब भी विचाराधीन है लेकिन राजनीतिक दांव पेचों की वजह से कभी जांच की गति तेज हो जाती है तो कभी मंद। कुल मिलाकर इस घोटाले के आरोपी अपने अंजाम तक पहुंचेंगे या नहीं, यह कहना अब तक के घोटालों को देखते हुए बहूत मुश्किल है।

छत्तीसगढ विधायक खरीद काण्ड (2003) -

दिसम्बर 2003 में छत्तीसगढ के तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी पर भाजपा विधायकों को खरीदने का आरोप लगा था। सीबीआई ने विधायकों को दिए गए धन के स्त्रोत को भी ढूंढ निकाला था। फारेंसिक लेब की रिपोर्ट में टेलीफोन की बातचीत में आवाज और समर्थन पत्र पर हस्ताक्षर के रूप में मामले में अजीत जोगी के शामिल होने के सुबूत भी मिल गए। सबूतों के बावजूद सीबीआई अजीत जोगी के खिलाफ 8 साल बाद भी आठ साल बार भी चार्जशीट दाखिल नहीं की है।

तेल के बदले अनाज (2005) –

तेल के बदले अनाज, वोल्कर रिपोर्ट के आधार पर यह बात सामने आयी कि तत्कालीन विदेश मंत्री नटवर सिंह ने अपने बेटे को तेल का ठेका दिलाने के लिए अपने पद का दुरूपयोग किया। उन्हें इस्तीफा देना पडा, हालांकि सरकार ने उन्हें बिना विभाग का मंत्री बनाए रखा था। एक के बाद एक नेता घोटालों के सरताज बनते जा रहे थे।

सत्यम घोटाला (2008) –

कार्पोरेट जगत इस बहती गंगा में हाथ धोने से पीछे क्यों रहता, तो सामने आया सत्यम घोटाला। कार्पोरेट जगत का शायद सबसे बडा घोटाला। 14 हजार करोड रूपये के इस घोटाले में सत्यम कम्प्यूटर सर्विसेज के मालिक राम लिंग राजू का नाम आया। राजू ने इस्तीफा दिया और वह अभी भी जेल में है। मुकदमा चल रहा है।

मधु कोडा (2009) –

राजनीतिक घोटालों की कभी भी खत्म न होने वाली श्रृंखला में एक और नाम शामिल हुआ मधु कोडा का। मुख्यमंत्री रहते हुए कोई अरबो की कमाई भी कर सकता है, यह सच साबित किया झारखण्ड के मुख्यमंत्री मधु कोडा ने। 4 हजार करोड से भी ज्यादा की काली कमाई की कोडा ने। बाद में इन पैसों को विदेष भेजकर जमा भी कराया और विदेशी पूंजी में निवेश भी किया। इस मामले में भी केस दर्ज हुआ और कोडा को जेल। जांच आज भी चल रही है।

खाद्यान्न घोटाला (2010) –

उत्तर प्रदेश में करीब 35 हजार करोड रूपये का खाद्यान्न घोटाला वर्ष 2010 में उजागर हुआ। दरअसल, यह अंत्योदय, अन्नपूर्णा और मिड-डे मील जैसी खाद्य योजनाओं के तहत आने वाले अनाज को बेचने का मामला है। यह घोटाला वर्ष 2001 से 2007 के बीच हुआ था। राज्य में इन योजनाओं के तहत आवंटित चावल की भी कालाबाजारी की गई। कुछ अनुमानो के मुताबिक इस तरह 2 लाख करोड रूपये के वारे-न्यारे करने का आरोप भी है। इस घोटाले मे मैनपुरी जनपद में ही तकरीबन 8 करोड के आसपास के गबन का आरोप है। एक बीएसए केडीएन राम के खिलाफ तो सीबीआई जांच भी चल रही है।

हाउसिंग लोन स्कैम (2010) –

सीबीआई ने नवम्बर 2010 में हाउसिंग स्कैम का भी पर्दाफाश किया। सीर्बीआइा ने परे घोटाले को करीब एक हजार करोड रूपये का बताया। इस घोटाले के आरोप में एलआईसी हाउसिंग फाइनेंस के सीईओ रामचंद्रन नायर के अलावा विभिन्न बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के कई अधिकारी गिरफतार किए गए। इन अधिकारियों में एलआईसी के सचिव नरेश के चोपडा, बैंक आफ इण्डिया के नरल मैनेजर आरएल तायल, सेंट्रल बैंक आफ इण्डिया के डायरेक्टर मनिंदर सिंह जौहर, पंजाब नेशनल बैंक के डीजीएम बैंकोबा गुजाल और मनी अफेयर्स के सीएमडी राजेश शर्मा गिरफतार किए गए।

एस बैंड घोटाला (2010) –

एस बैंड स्पेक्ट्रम घोटाला करीब 2 लाख करोड रूपये का बताया जा रहा है। आरोप है कि इसरो की कारोबारी इकाई अंतरिक्ष ने निजी कंपनी देवास मल्टीमीडिया प्राइवेट लिमिटेड के साथ दुर्लभ एस बैंड स्पेक्ट्रम बेचने का समझौता किया। बिना नीलामी के कंपनी को स्पेक्ट्रम देने का फैसला हो गया। कंपनी के निदेशक डा. एमजी चंद्रशेखर, जो पहले इसरो में ही वैज्ञानिक थे। अब यह डील रद्द करने की बात चल रही है और अंतरिक्ष के चेयरमैन को भी हटाया जा रहा है। पूर्व कैबिनेट सचिव बीके चतुर्वेदी की अध्यक्षता में मामले की जांच के लिए समिति भी बन गई है। इस मामले में कई कंपनियां संदेह के दायरे में थीं। ये कंपनियां इन अधिकारियों को रिश्वत देकर करोडों रूपयों के कार्पोरेट लोन स्वीकृत करवा लेते थे। जो कंपनियां संदेह के दायरे में हैं उनमें लवासा कार्पोरेशन, ओबेराय रियलिटी, आशापुरा माइनकैम, सुजलोन इनर्जी लिमिटेड, डीबी रियलिटी, एम्मार एमजीएफ, कुमार डेवलपर्स आदि हैं।

आदर्श घोटाला (2010) –

यह घोटाला पुराने मुंबई टाउन के संभ्रांत कोलाबा इलाके में समुद्र पाटकर विकसित बैकवे रेक्लेशन एरिया के ब्लाक 6़़ में 6490 वर्ग मीटर के भूखण्ड पर कायदे-कानून को ठेंगा दिखाकर आदर्श को-आॅपरेटिव हाउसिंग सोसायटी नाम की 31 मंजिली इमारत बनाने का है। कारगिल में शहीद हुए जवानों के परिजनों को देने के लिए मुंबई में बनायी गई आदर्श सोसायटी के करोडों के फलैट लाखों के भाव में मंत्रियों, संतरियों केहित सैन्य अधिकारियों और उनके रिश्तेदारों के नाम कर दिए गए हैं। इन फलैटों की कीमत 60 लाख रूपये तक है। मौजूदा बाजार मूल्यों के अनुसार इनकी कीमत 8 करोड रूपये तक है। मामले में मुख्यमंत्री अशोक चाव्हाण का नाम आने पर उतना अचंभा नहीं हुआ जितना कि तीन पूर्व सेना प्रमुखों – जनरल दीपक कपूर, जनरल एनसी विज और एडमिरल माधवेन्द्र सिंह के नाम आने से हुआ। ईमानदार फौज के प्रमुखों का यह कारनामा बेहद शर्मिदगी भरा है। नेताओं की क्या बात करें, ये तो बनते ही लूटने के लिए हैं।
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