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भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत समर्थक

लोकतंत्र पर हावी होता जुगाड़तंत्र


नयी दिल्ली : चुनाव यदि लोकतंत्र की प्राथमिक जरूरत है, तो उसका स्वतंत्र एवं निष्पक्ष होना भी लोकतंत्र की सफ़लता के लिए अनिवार्य है. लेकिन भारत में कुछ वर्षों से चुनावों के दौरान पैसे का खेल जिस तेजी से बढ़ा है, लोकतंत्र पर धनतंत्र के हावी होने का खतरा मंडरा रहा है.


हाल में संपन्न पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान करोड़ों रुपये जब्त हुए. हैरानी की बात है कि जब्त रुपये पर कोई दावा भी नहीं करता. अब तो राज्यसभा चुनाव तक में पैसों के खेल की चर्चा होने लगी है.
झारखंड में राज्यसभा चुनाव के दिन दो करोड़ रुपये की जब्ती ने इस धारणा को और पुख्ता किया है. जानकारों का मानना है कि बाहुबल की ताकत पर विराम लगने के बाद धन की ताकत राजनीतिक दलों के लिए जिताऊ फ़ैक्टर बन गयी.


सेंटर फ़ॉर मीडिया स्टडीज (सीएमएस) के एक आकलन के मुताबिक, वर्ष 2009 लोकसभा चुनाव में आधिकारिक तौर पर कांग्रेस ने 1,500 करोड़ रुपये, भाजपा ने 1,000 करोड़, बसपा और एनसीपी ने 700-700 करोड़, डीएमके ने 400 करोड़ और एआइडीएमके ने 300 करोड़ रुपये खर्च किये थे.


सर्वे के मुताबिक, 2009 में देश में 20 फीसदी मतदाताओं ने माना था कि विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों ने वोट के एवज में पैसे देने की पेशकश की थी. स्टेट फ़ंडिंग की व्यवस्था होचुनावों में धन के बढ़ते इस्तेमाल के बारे में पूर्व चुनाव आयुक्‍त जीवीजी कृष्णमूर्ति कहते हैं, पैसे से चुनाव को प्रभावित करने का मामला नया नहीं है, लेकिन पिछले दो दशक में इसका इस्तेमाल तेजी से बढ़ा है.


चुनावी प्रक्रिया में अब करोड़पति और कॉरपोरेट हितों को आगे बढ़ानेवाले लोग सीधे तौर पर शामिल हो रहे हैं. वे सीधे चुनाव जीत कर नीति निर्माण में भूमिका निभा रहे हैं. चुनावों का खर्च इस स्तर पर पहुंच गया है कि मौजूदा कानून मजाक बन कर रह गये हैं.


चुनावों में धन बल के बढ़ते प्रयोग को रोकने के लिए चुनाव आयोग को और अधिकार दिये जाने की जरूरत है. साथ ही चुनावी खर्च पर रोक लगाने के लिए स्टेट फंडिग की व्यवस्था भी होनी चाहिए.


पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र जरूरीचुनाव आयोग के सलाहकार रह चुके केजे राव कहते हैं, पिछले कुछ समय से चुनाव आयोग की सख्ती के कारण बड़े पैमाने पर रुपये जब्त किये जा रहे हैं.


बावजूद इसके, चुनावों में पैसे का इस्तेमाल बढ़ता ही जा रहा है. इसे तब तक नहीं रोका जा सकता, जब तक भ्रष्टाचार, खास कर राजनीतिक भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा. राजनेताओं द्वारा भ्रष्टाचार से कमाये गये कालेधन के कारण ही चुनावों में पैसे का इस्तेमाल लगातार बढ़ा है.


लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए यह अच्छा संकेत नहीं है. चुनावों धन का इस्तेमाल बढ़ने की कई और वजहें भी हैं. मसलन, आज किसी भी दल में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है. पार्टियों में जब तक आंतरिक लोकतंत्र नहीं आयेगा, चुनाव प्रक्रिया पारदर्शी नहीं हो पायेगी.


चुनाव सुधार जरूरी
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के डायरेक्टर जगदीप छोकर कहते हैं, राजनीति में कालेधन का बढ़ता इस्तेमाल लोकतंत्र की नींव को खोखला कर रहा है. खास कर चुनावों में कालेधन का प्रयोग व्यापक पैमाने पर हो रहा है.


इससे चुनावी प्रक्रिया प्रभावित होती है. इसे रोकने के मौजूदा कानून प्र्याप्त नहीं हैं. इसके लिए तत्काल दो कदम उठाने की जरूरत है. पहला, सभी दलों में आंतरिक लोकतंत्र की बहाली हो.


आज विधानसभा से लेकर लोकसभा चुनाव तक के प्रत्याशी हाइकमान की मरजी से तय होते हैं. वहां चयन का आधार क्या होता है, यह किसी को पता नहीं चलता. उम्मीदवारों के चयन के लिए पार्टियों में निचले स्तर पर चुनाव होना चाहिए. दूसरा प्रमुख उपाय है, पार्टियों को मिलनेवाले फंड को पारदर्शी बनाना. पार्टियों के पास करोड़ों रुपये कहां से आते हैं, यह पता नहीं चलता.


देश में चुनाव सुधार का मामला वर्षो से अधर में लटका हुआ है. कोई भी दल चुनाव सुधार नहीं चाहता. जाहिर है, इसके लिए लोगों को ही आगे आना होगा.


कोट : राजनेताओं द्वारा भ्रष्टाचार से कमाये कालेधन के कारण ही चुनावों में पैसे का इस्तेमाल बढ़ा है. 
केजे राव, चुनाव आयोग के पूर्व सलाहकार



  •  चुनावों में काले धन का प्रयोग व्यापक पैमाने पर हो रहा है.
  •  यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान लखीमपुर में दो करोड़ रुपये जब्त
  •  पंजाब विधानसभा चुनाव के दौरान 12 करोड़ रुपये जब्त
  •  तमिलनाडु विस चुनाव के दौरान करीब 24 करोड़ जब्त
  •  कहां जाता है जब्त रुपया : चुनावों के दौरान जब्त धन आयकर विभाग के कैश डिपार्टमेंट में जमा होता है
  •  चुनावों का खर्च इस स्तर पर पहुंच गया है कि मौजूदा कानून मजाक बनकर रह गये हैं.- जीवीजी कृष्णमूर्ति, पूर्व चुनाव आयुक्‍त


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