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भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत समर्थक

राजनीति विकल्प के लिए

देश में आम चुनाव अभी दूर है लेकिन चुनाव नतीजों को लेकर कयास लगने लगे हैं। एक के बाद एक घोटालों के उजागर होने, कमरतोड़ महंगाई तथा अन्ना-रामदेव बाबा के चलते देश में ऐसा माहौल बन गया है या लगने लगा है कि चुनाव जल्दी ही होने वाले हैं। एनडीए में नरेन्द्र मोदी और नीतीश के बीच तनातनी की खबरें लगातार प्रायोजित हो रही हैं। मीडिया कुछ इस तरह बता रहा है कि बच्चा होने के पहले ही एनडीए में सिर फुटवल शुरू हो चुकी है। उधर मुलायम सिंह यादव ने भी दावा ठोक दिया है कि यदि वे 60 सीटें लाने में कामयाब हुए तो गैर कांग्रेस गैर भाजपा सरकार बनना तय है। एनडीए, यूपीए ने एक सिरे से मुलायम ंिसंह के दावों को खारिज कर दिया।

फिलहाल देश में कांग्रेस के खिलाफ हवा बनी हुई है। अन्ना-रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी तथा काले धन के आंदोलनों ने देश में इस हवा को बनाने में मुख्य भूमिका अदा की है। अन्ना हजारे जी, अरविन्द केजरीवाल एवं उनके साथियों द्वारा गठित की जाने वाली पार्टी को कितना खुलकर समर्थन करेंगे यह अभी स्पष्ट नहीं है। अरविंद केजरीवाल द्वारा बनाई जाने वाली पार्टी अन्ना की पार्टी कही जा सकेगी यह भी स्पष्ट नहीं है। अन्ना तथा अरविन्द केजरीवाल द्वारा बनाई जाने वाली पार्टी का रूख कांग्रेस विरोधी होगा यह भी फिलहाल कहा नहीं जा सकता। अन्ना तथा अरविन्द केजरीवाल की टीम ने यूपीए सरकार को उखाड़ने या 15 मंत्रियों को हटाने तक की घोषणा अब तक नहीं की है। यानी अरविन्द की टीम सभी पर्टियों को एक लाठी से हांकने का विचार दोहराती दिखलाई पड़ रही है। ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ के आंदोलन के समय जो गलती की गई थी वही दुहराई जा रही है। अन्ना टीम ने मात्रा भेद की जरूरत तब भी नहीं समझी थी तथा आज भी समझने को तैयार नहीं है।

बंगाल में वामपंथियों ने 33 वर्ष तक राज किया उनकी सरकार को कांग्रेस, भाजपा तो क्या वाम फ्रंट की राजनीतिक जानी दुश्मन ममता तक ने वाम फ्रंट की सरकार पर बड़े घोटालों के आरोप नहीं लगाए। चाहे वह नीतीश की जनता दल (यू) की सरकार हो या समाजवादी पार्टी की उत्तर प्रदेश की सरकार, दोनों ही सरकारों के मंत्रियों तथा मुख्यमंत्रियों पर घोटालेबाजी के आरोप नहीं लगे। जब अमर ंिसंह को लेकर समाजवादी पार्टी की बहुत निन्दा हुआ करती थी तब भी समाजवादी पार्टी की तत्कालीन मुलायम सरकार पर बड़े भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे लेकिन कभी भी अन्ना के आंदोलन के दौरान राजनीतिक दलों के बीच कोई भेद नहीं किया गया। इस तरह बताया गया की राजनीतिक दल के नेता होने का मतलब ही भ्रष्टाचारी होना है। जबकि यह बात ठोक बजाकर कही जा सकती है कि दिल्ली में भी जब-जब गैरकांग्रेसी सरकार बनी कोई बड़ा घोटला सामने तो आया ही नहीं आरोप भी बहुत कम लगे।

राजनीति करने तथा राजनीतिक दल के नेता होने के लिए भ्रष्टाचारी होना जरूरी नहीं है। लेकिन फिर भी अन्ना को यह चिंता सता रही है कि यदि अरविन्द टीम के लोग कहीं सरकार में चले जाएं तो वे उसी तरह की आचरण नहीं करेंगे जैसा लालू यादव ने किया। यह बात वे प्रश्न के तौर पर पूछ रहें हैं। अन्ना बार-बार कहते हैं कि क्या हमारे लोग निष्काम भाव से सरकार चला सकते हैं। अन्ना, टीम के लोगों से वे जवाब भी पूछते रहे हैं। वे चाहते हैं कि उनके लोग यदि चुनाव लड़े और सरकार बनाएं तो वे सेवा भाव के साथ सरकार चलाए। फिलहाल अन्ना की सरकार की कल्पना नहीं की जा सकती। सभी कहते हैं कि यदि कुछ अच्छे लोग चुनाव जीत भी जाएंगे तो क्या फर्क पड़ेगा। कुछ न कुछ अच्छे लोग/ईमानदार लोग/अन्ना की भाषा में चरित्रवान लोग तो यदा-कदा चुनाव जीतते ही रहते हैं, जीतते भी रहेंगे। लेकिन भारतीय राजनीति पर कितना प्रभाव डाल पाएंगे? यह शाशवत प्रश्न बनकर देश के सामने खड़ा हुआ है।

सभी जानते और मानते हैं कि न तो दिल्ली में कोई एक पार्टी सरकार बनाने की स्थिति में है न ही होने वाली है। कम से कम बीस पार्टियों के गठबंधन से कम का कोई भी गठबंधन सरकार बनाने की कल्पना नहीं कर सकता।

स्वाभाविक तौर पर गठबंधन न्यूनतम कार्यक्रमों के आधार पर ही तैयार हो सकता है। आज तक दिल्ली में जितनी गठबंधन की सरकार बनी वो न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर चली। कांग्रेस और भाजपा के साथ जिस तरह क्षेत्रीय दल गठबंधन बनाते हैं। उस तरह का न्यूनतम कार्यक्रम पर

आधारित गठबंधन क्षेत्रीय दल भी क्यों नहीं बना सकते? पहले जनता पार्टी फिर जनता दल से निकली पार्टियां अपने को जनता परिवार का हिस्सा तो मानती हैं लेकिन वे सब दल जो कभी जनता पार्टी या जनता दल में थे वे बिना अपनी पार्टी का आपसी विलय किए गठबंधन क्यों नहीं बना सकते। स्पष्ट है कि चाहे वह क्षेत्रीय दलों का गठबंधन हो या पुराने जनता पार्टी या जनता दल में एक साथ कार्य करने वाले आज के अलग-अलग दल क्यों न हो संख्या की दृष्टि से विकल्प देने की ताकत रखते हैं। यदि वाम पार्टियां लंबे समय तक एक गठबंधन में काम कर सकती है तो क्षेत्रीय दलों अथवा जनता परिवार में शामिल रहे दल क्यों नहीं? जबाब भी एकदम साफ है इसलिए कि किसी तरह का नियंत्रण वो अपने ऊपर नहीं चाहते। जो लोग यह कहते हैं कि क्षेत्रीय दलों की नीतियों में अथवा जनता परिवार में एक साथ रहे पार्टी की नीतियों में कोई विशेष अंतर है तो बताया जाना चाहिए की कौन सी नीतियां उन्हें आपसी ताल-मेल से रोकती हैं। इन सभी पार्टियों के लोकप्रिय कार्यक्रम अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन आर्थिक सामाजिक नीतियों में कोई अन्तर दिखलाई नहीं पड़ता।

 देश में वाम फ्रंट द्वारा या देश में तीसरे नंबर की सबसे बड़ी पार्टी समाजवादी पार्टी के द्वारा इस दिशा मंे पहल की जानी चाहिए।

जब न्यूनतम कार्यक्रमों पर समझौते की बात आती है तो अन्ना और रामदेव बाबा के आंदोलन को लेकर भी लोग तमाम सवाल उठाते हैं। यह सही है कि दोनों आंदोलनों की प्राथमिकताओं में अंतर है एक भ्रष्टाचार पर केंन्द्रित है दूसरा काले धन पर लेकिन क्या दोनों आंदोलन न्यूनतम आधार पर एक साथ नहीं चल सकते। या अगर यह कहा जाए कि दोनों आंदोलन क्या आपसी राजनीतिक समझदारी नहीं बना सकते। रामदेव बाबा यदि एनडीए के साथ समझदारी विकसित कर सकते हैं तो अन्ना आंदोलन या अरविन्द केजरीवाल की टीम द्वारा बनाई जा रही पार्टी के साथ क्यों नहीं? जो बात क्षेत्रीय दलों, जनता परिवार के दलों तथा अन्ना-रामदेव बाबा के आंदोलनों के बारे में कही जा रही है वही बात वाम फ्रंट तथा माओवादियों के बारे में कही जा सकती है। यदि माओवादी, ममता बनर्जी के साथ न्यूनतम समझदारी बना सकते हैं तो वाम फ्रंट के साथ क्यों नहीं? यह उसी तरह की बात है जैसे देश में अलग-अलग नामों से पार्टी चलाने वाले समाजवादी नेता यूपीए में जाकर कांग्रेस से समझौता कर सकते हैं या एनडीए में रह सकते हैं लेकिन सभी प्रमुख समाजवादी नेता आपस में न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर एक साथ कार्य नहीं कर सकते हालांकि सभी गांधी, लोहिया, जयप्रकाश का नाम लेते नहीं थकते। जिस तरह व्यापक समाजवादी एकजुटता बनाया जाना जरूरी है उसी तरह पहले व्यापक वाम एकता तथा बाद में व्यापक वाम एवं समाजवादी एकता बनाया जाना जरूरी लगता है।

देश में तमाम जगहांे पर गांधीवादी एवं सर्वोदयी कांग्रेस का समर्थन करते दिखलाई पड़ते हैं जबकि वे ऐतिहासिक-वैचारिक-सैद्धांतिक तौर पर यह स्वीकार करते हैं कि गांधी के विचार को यदि सबसे प्रभावशाली ढंग से किसी एक नेता ने आगे बढ़ाया तो उस नेता का नाम डाॅ. राममनोहर लोहिया तथा समाजवादी ताकतें थी जिसने वैचारिक तौर पर गांधी जी को डिशओन करने वाली कांग्रेस से नीतिगत एवं मूल्यों के आधार पर मुकाबला किया। देश में जिस बड़े पैमाने पर गांधीवादी, सर्वोदयी संस्थाएं काम करती हैं यदि वे समाजवादियों के साथ खड़ी हो जाएं तो देश को हिलाने का काम कर सकती है।

यही बात देश भर में जनांदोलन करने वाले संगठनों के बारे में सही है। देश में हजारों संगठन जल-जंगल- जमीन के मुद्दे पर स्थानीय लोगों के साथ मिलकर स्थानीय नेतृत्व के साथ डट कर सरकारों से मुकाबला कर रहे हैं लेकिन सभी एक साथ काम करने को तैयार नहीं हैं। जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय जैसे संगठन सतत प्रयास भी कर रहे हैं। लेकिन अब तक कोई बड़ी ताकत खड़ी करने में नाकामयाब रहा है। मुद्दों के आधार पर यह एकजुटता बनती रहती है लेकिन न्यूनतम कार्यक्रमों के आधार पर कोई राजनीतिक ताकत खड़ी नहीं हो सकती है जबकि इस समय देश में जन आंदोलनों की इतनी बड़ी ताकत बन चुकी है कि वे सरकार से लोहा लेने की स्थिति में है। तथा समय समय पर सरकार को झुकाते हुए दिखाई भी पड़ते हैं। जन संगठनों को वामपंथियों समाजवादियों अन्ना, रामदेव बाबा के आंदोलनों के साथ-साथ माओवादियों के साथ न्यूनतम सहमति के बिन्दु तलाशने चाहिए। जल-जंगल-जमीन के मुद्दे को लेकर देश के जन संगठनों तथा माओवादियों की सोच काफी हद तक मेल खाती है। जन संगठनों को खुलकर यह कहना शुरू करना चाहिए कि वे हिंसा को लेकर खून-खराबा व कत्लेआम के अलावा अधिकतर मुद्दों पर माओवादियों के साथ सहमति रखते हैं।

वामपंथियों, समाजवादियों, माओवादियों, गांधीवादियों, सर्वोदयी, जनसंगठनों तथा अन्ना-रामदेव बाबा के आंदोलन के साथी यदि किसान-मजदूर गरीब को लेकर यदि एक न्यूनतम कार्यक्रम विकसित करने की कोशिश करें तथा समाज के दबे-कुचले, वंचित तबकों को शक्ति संपन्न बनाने के उद्देश्य से कोई न्यूनतम कार्यक्रम मिल-जुलकर तय करें तो आने वाला समय बदलाव का हो सकता है जिसका आम आदमी इंतजार कर रहा है लेकिन उनकी आकांक्षाओं- अपेक्षाओं और सपनों को पूरा करने में अहम एवं महत्वाकांक्षाएं आड़े आ रही हैं। भले ही वे ऊपरी तौर पर मतभेदों के सिद्धांत का जामा पहनाते हुए दिखलाई देते रहे हैं। यदि इन जमातों के नेता आपसी न्यूनतम समझदारी बनाने के लिए आगे नहीं आते तो यह काम जनता को स्वयं आगे आकर करना होग। कब तक लोग नेताओं के फैसले का इंतजार करते रहेंगे?

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