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कर्ज के भंवर में डूबा देश

31 दिसंबर 2011 तक भारत सरकार पर 33 लाख 82 हजार करोड़ रुपए का ऋण था। यह तो गनिमत है कि इस भारी भरकम कर्ज में विदेशी हिस्सा महज 3 लाख 40 हजार करोड़ का ही है। यदि पिछले दो सालों का ब्योरा देखें तो हर साल एक लाख करोड़ का ऋण भार भारत पर चढ़ा है। अगली केंद्र सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो उसके मत्थे 10 लाख करोड़ के ऋण की अदायगी अभी से तय है। कर्ज का बढ़ता बोझ यह साबित करता है कि सरकार की आमदनी तो घटी ही है साथ ही आमदनी की पूर्ति के लिए उसने आवश्यक कदम नहीं उठाए। यह हालात तब हैं जब देश में अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री, वरिष्ठ और अनुभवी वित्तमंत्री के रूप में प्रणब मुखर्जी और आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ मोंटेक सिंह अहलुवालिया योजना आयोग के उपाध्यक्ष हैं। देश के आर्थिक सेहत का दारोमदार मुख्यत: इन्ही तीन स्तंभों पर टिका होता है। क्या यह माना जाए कि पिछले दो सालों में विश्व व्यापी मंदी, देश में बेतहाशा बढ़ी महंगाई और आर्थिक अनुशासनहीनता ने देश को कर्ज के भंवर में फंसा दिया है? बावजूद इसके यह कहना फिलहाल जल्दबाजी होगी कि भारत भी मंदी के चपेट में रहा। अन्यथा क्या कारण है कि विगत दो वर्षों में देश पर दो लाख करोड़ का ऋण भार बढ़ गया। ऐसा लगता है देश के आर्थिक रणनीतिकारों से स्थितियों को भांपने में गड़बड़ी हुई है। लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रक्रिया में जब सत्ता पर काबिज रहना राजनीतिक दलों का ध्येय बन जाता है तब सियासी लाभ-हानि के मद्देनजर लुभावने वायदों की पूर्ति की जाती है। जनहित सरकार का धर्म है, चुनावी वायदों को निभाना फर्ज है। संप्रग सरकार की पहली पारी में किसानों का करोड़ों रुपए का ऋण माफ किया गया, अभी दो माह पूर्व बुनकरों के लिए विशेष पैकेज पर अमल शुरू हुआ, अन्य सबसिडी पर भी खजाने से भारी भरकम राशि जा रही है। यह सब हो रहा है कर्ज के पैसों से। अनेक योजनाओं पर काम चल रहा है। खजाना खाली है पर काम होते रहना है। मूलधन तो अपनी जगह है ब्याज अदा करने में भी सरकार को पसीने छूट रहे हैं। सरकार के लिए राहत की बात यही है कि आगामी वर्षों में जो बड़े ऋणों का चुकारा होना है वह भारतीय बैंकों को ही करना है जो प्रतिभूतियों की शक्ल में हैं। व्यक्तिगत ऋण और सरकारी ऋण की अदायगी में बड़ा फर्क यह है कि व्यक्ति से वसूली आसान है जबकि सरकार से वसूली कठिन है। सरकारी प्रबंधकों को इस बात की फिक्र नहीं होती कि उसे समय पर कर्ज चुकाना है। कर्ज अदा करने का सरकार के पास राजस्व वसूली सबसे बड़ा साधन है। जाहिर है वसूली अपेक्षित नहीं है। वसूली का एक हिस्सा कर्ज और ब्याज चुकाने में किया जाना चाहिए, संभवत: सरकारी प्रबंधक उसमें भी चूक गए हैं। आमदनी बढ़ाए बिना कर्ज अदायगी सरल नहीं होती। यह तभी होता जब सरकार वसूली में सख्त और पाबंद हो। चाहे प्रश्न आम लोगों का हो या किसानों-बुनकरों का हो अथवा बड़े औद्योगिक घरानों से टैक्स वसूली का हो सरकार को सचेत रहना होगा। संप्रग सरकार अगले आम चुनाव से पूर्व खाद्य सुरक्षा कानून लागू करने की जिद ठान बैठी है। देश की 75 प्रतिशत आबादी को रियायती अनाज देने उत्पादन पर्याप्त नहीं है, जाहिर है विदेशों से खाद्यान्न आयात करना होगा, उसके लिए सरकार कहां से रकम जुटाएगी? हालिया दिनों में डालर के मुकाबले रुपया बेहद कमजोर स्तर पर आ गया, इससे आयात पर बोझ बढ़ा। यह सुनिश्चित करने का प्रयास होना चाहिए कि आयात-निर्यात में समुचित संतुलन रहे। अभी आयकर विभाग 22 सौ ऐसे सौदों पर अपना ध्यान केंद्रित कर रही है जिन पर दो हजार करोड़ के अवैध लेन-देन का शक है। सरकार को न सिर्फ मितव्ययता की ओर कदम उठाना होगा वरन् 'ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत, यावत् जीवेत् सुखम जीवेत्Ó की भावना का त्याग भी करना है। काश देश को भी घर समझ कर चलाया जाता।
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