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भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत समर्थक

बीजेपी विपक्ष नहीं है

यह इस देश का दुर्भाग्य है कि भारतीय जनता पार्टी देश की मुख्य विपक्षी पार्टी है. आपसी फूट, अविश्वास, षड्‌यंत्र, अनुशासनहीनता, ऊर्जाहीनता, बिखराव और कार्यकर्ताओं में घनघोर निराशा के बीच उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में हार का सामना और अलग-अलग राज्यों के पार्टी संगठन में विद्रोह, वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी की यही फितरत बन गई है. भारतीय जनता पार्टी विश्वसनीय विपक्ष की भूमिका निभाने में विफल रही है. उसे अपने कर्तव्यों एवं ज़िम्मेदारियों का एहसास ही नहीं है. महंगाई हो या बेरोज़गारी या फिर जनता से जुड़ी अन्य समस्याएं, भाजपा स़िर्फ खानापूर्ति के लिए धरना, प्रदर्शन और संसद के अंदर हंगामा करती है और उसके बाद सुषुप्तावस्था में चली जाती है. भारतीय जनता पार्टी के बयानों और विरोध प्रदर्शनों में जनता के प्रति संवेदना की कमी साफ-साफ दिखती है. जनता के साथ मिलकर जनता की आवाज़ उठाने की कला भाजपा भूल चुकी है. प्रजातंत्र में विपक्ष का यह दायित्व है कि वह सरकार के कामकाज पर नज़र रखे, उस पर अंकुश लगाए, जनता का पक्षधर बनकर सरकार की नीतियों एवं योजनाओं पर सवाल उठाए, ग़रीबों, किसानों एवं शोषित वर्गों के लिए संघर्ष करे, उनकी अगुवाई करे और उनके साथ मिलकर उनकी मांगों के समर्थन में आंदोलन करे. अगर विपक्ष यह काम करता है, तभी उसकी प्रासंगिकता और उपयोगिता होती है. अगर वह ऐसा नहीं करता तो ऐसे विपक्ष का क्या फायदा? फिर तो सरकार का निरंकुश बनना स्वाभाविक है. भारतीय जनता पार्टी का कमजोर होना ही केंद्र सरकार की जनता विरोधी नीतियों और भ्रष्टाचार का मुख्य कारण है.

मुंबई में अज़ीबोगरीब नज़ारा देखने को मिला. एक तरफ नितिन जयराम गडकरी को फिर से पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया. मंच पर जब लालकृष्ण आडवाणी उन्हें लड्डू खिला रहे थे, तब उनके पीछे खड़े भारतीय जनता पार्टी के मुख्य रणनीतिकार अरुण जेटली का चेहरा तमतमाया हुआ नज़र आ रहा था. साफ जाहिर हो रहा था कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इस फैसले से खुश नहीं हैं. दूसरी महत्वपूर्ण घटना नरेंद्र मोदी का राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में वापस लौटना है. मोदी पिछली दो बैठकों में नदारद रहे. हर बार पार्टी प्रवक्ताओं एवं भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने देश से झूठ बोला कि मोदी व्यस्त हैं, कोई नाराजगी नहीं है, लेकिन मुंबई में यह साफ हो गया कि भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के बीच प्रतिस्पर्धा अब दुश्मनी में बदल गई है. मोदी अपनी शर्तों पर राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में शामिल हुए. जब तक संजय जोशी को सारे दायित्वों से मुक्त नहीं किया गया, तब तक नरेंद्र मोदी नहीं माने. मुंबई में संपन्न हुई पार्टी की दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक से एक बात तो साफ हो गई कि भाजपा एक अलग पार्टी होने की पहचान खोकर एक अलग-थलग पार्टी के रूप में देश की जनता के सामने है. भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं को अब समझ में नहीं आ रहा है कि वे खुशियां मनाएं या फिर अपनी छाती पीट-पीटकर रोएं.

संजय जोशी आरएसएस के चहेते हैं और भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच काफी लोकप्रिय भी हैं. वह भाजपा के उन चंद नेताओं में से हैं, जो कार्यकर्ताओं का इस्तेमाल नहीं करते हैं, बल्कि उनके काम आते हैं. दोनों के बीच दुश्मनी तब और बढ़ गई, जब 2001 में पार्टी ने नरेंद्र मोदी को मुख्यमंत्री बनाया और संजय जोशी को राष्ट्रीय संगठन मंत्री बना दिया गया.

नरेंद्र मोदी और संजय जोशी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्णकालिक हैं. दोनों किसी जमाने में दोस्त भी रहे. एक साथ गुजरात में कई सालों तक काम भी किया. दोनों ने एक साथ ही राजनीति शुरू की थी. लेकिन दोस्त जब दुश्मन बन जाते हैं तो एक-दूसरे की जान के दुश्मन बन जाते हैं. ऐसा ही कुछ नरेंद्र मोदी और संजय जोशी के बीच हुआ. संजय जोशी आरएसएस के चहेते हैं और भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच काफी लोकप्रिय भी हैं. वह भाजपा के उन चंद नेताओं में से हैं, जो कार्यकर्ताओं का इस्तेमाल नहीं करते हैं, बल्कि उनके काम आते हैं. 1990 में जब नरेंद्र मोदी गुजरात भाजपा के जनरल सेक्रेटरी बने, तब संजय जोशी सेक्रेटरी थे. दोनों ने पांच साल तक एक साथ काम किया और पहली बार 1995 में भाजपा गुजरात में चुनाव जीती और केशु भाई पटेल मुख्यमंत्री बने. इसके बाद गुजरात भाजपा में शंकर सिंह वाघेला ने विद्रोह कर दिया. इस दौरान नरेंद्र मोदी को दिल्ली भेज दिया गया और संजय जोशी गुजरात भाजपा के संगठन मंत्री बनाए गए. दोनों के बीच दुश्मनी तब शुरू हुई, जब 1998 में नरेंद्र मोदी वापस गुजरात आना चाहते थे, उस समय संजय जोशी ने मोदी का विरोध किया था. दोनों के बीच दुश्मनी तब और बढ़ गई, जब 2001 में पार्टी ने नरेंद्र मोदी को मुख्यमंत्री बनाया और संजय जोशी को राष्ट्रीय संगठन मंत्री बना दिया गया. लेकिन 2005 में संजय जोशी को उस समय पार्टी से इस्तीफा देना पड़ा, जब उनका नाम एक फर्जी सीडी के मामले से जुड़ गया. संजय जोशी के समर्थकों को लगता है कि इस सीडी कांड के पीछे नरेंद्र मोदी से जुड़े लोगों का हाथ है. इस कांड के बाद से करीब छह साल तक संजय जोशी भाजपा से बाहर ही रहे. पिछले साल नितिन गडकरी ने संजय जोशी को भाजपा में न स़िर्फ पुन: शामिल किया, बल्कि उत्तर प्रदेश में चुनाव की ज़िम्मेदारी दे दी. अगर उत्तर प्रदेश में भाजपा सौ के आसपास सीटें जीत गई होती तो शायद संजय जोशी को पार्टी का संगठन मंत्री बना दिया जाता और उन्हें मोदी की जिद के सामने झुकना नहीं पड़ता. फिलहाल बाजी नरेंद्र मोदी ने जीत ली है. नरेंद्र मोदी को लगता है कि अगर संजय जोशी को राष्ट्रीय संगठन मंत्री बना दिया गया तो उनके भविष्य के लिए मुश्किलें पैदा हो सकती हैं. प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी दावेदारी का विरोध पार्टी से ही शुरू हो जाएगा.

मुंबई में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नितिन गडकरी को फिर से अध्यक्ष चुना गया है. असलियत यह है कि पार्टी के कई बड़े नेता गडकरी के कामकाज से नाखुश हैं. उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान जब वरिष्ठ नेताओं को बताए बिना गडकरी ने मायावती सरकार के एक दागी मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा को पार्टी में शामिल कर लिया था, तब काफी हंगामा हुआ था. कई नेताओं ने संघ के वरिष्ठ पदाधिकारियों से शिकायत भी की थी. उनके सामने गडकरी को अध्यक्ष पद से हटाने तक की मांग कर डाली, लेकिन फिर भी गडकरी अध्यक्ष बने रहे. गडकरी के कामकाज का तरीका अलग है. देश की मुख्य विपक्षी पार्टी का अध्यक्ष होना कोई आसान काम नहीं है. उसके कंधों पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी होती है. प्रजातंत्र में विपक्षी पार्टी के नेता की ज़िम्मेदारी सरकार चलाने वाली पार्टी से कई मायनों में कहीं ज़्यादा होती है. अगर यह कंधा कमज़ोर हो तो देश की राजनीति पर इसका विपरीत असर पड़ता है. ऐसे व्यक्ति के पास देश को अलग राह दिखाने की दूरदर्शिता और व्यक्तित्व होना अनिवार्य है. गडकरी ने दो सालों में यह साबित किया है कि उनके पास देश और पार्टी चलाने का कोई विजन नहीं है. भाजपा के वरिष्ठ नेता तमाशबीन बनकर गडकरी के क्रियाकलापों को देखते रहे हैं. तीन साल तक वे कुछ नहीं कर सके. नितिन गडकरी ने अब तक एक भी ऐसा काम नहीं किया है, जिससे कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़े या समर्थकों का विश्वास फिर से जीता जा सके. नितिन गडकरी के व्यवहार से ऐसे कोई संकेत भी नहीं मिल रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी के मुख्य कार्यालय में निराशा बढ़ने लगी है. अब तो लोग यह कहने लगे हैं कि नितिन गडकरी के आने के बाद भी पार्टी के काम करने के तरीक़े में कोई सकारात्मक बदलाव नहीं हुआ है.

लोकतंत्र में जनता किसी पार्टी को इसलिए विपक्ष में बैठाती है, ताकि वह उसके दु:खों-तकलीफों को समझे और सरकार के ख़िला़फ आवाज़ बुलंद करे. प्रजातंत्र में विपक्ष को अपनी प्रासंगिकता और उपयोगिता साबित करनी पड़ती है. उसे स़िर्फ संघर्ष ही नहीं करना होता है, बल्कि यह भी साबित करना होता है कि वह वर्तमान सरकार से ज़्यादा बेहतर काम कर सकता है, ताकि जनता उस पर भरोसा कर सके और अगले चुनाव के बाद उसे सरकार चलाने का मौक़ा दे. यही वजह है कि लोकतंत्र में विपक्ष की ज़िम्मेदारियां सत्ता पक्ष से कहीं ज़्यादा होती हैं, लेकिन भारतीय जनता पार्टी क्या कर रही है? पेट्रोल के दाम बढ़ गए, लेकिन भाजपा के अंदर इस बात पर बहस हो रही है कि मोदी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में आएंगे या नहीं. यह ऐसा विपक्ष है, जो संकट के इस दौर में जनता में यह विश्वास नहीं जगा पा रहा है कि वह कांग्रेस का विकल्प बन सकता है. देश में महंगाई है, आर्थिक मंदी है, रुपया सस्ता और पेट्रोल महंगा हो गया है, किसान बेहाल हैं, मज़दूर परेशान हैं, पीने के पानी की समस्या है, स्वास्थ्य सेवाओं की हालत खस्ता है, आतंकवाद का खतरा है, नक्सलियों की समस्या है, संवैधानिक संस्थाओं की वैधता पर सवाल खड़े होने लगे हैं. कहा जा सकता है कि देश में प्रजातंत्र कमजोर होता जा रहा है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी दिखावटी विरोध के अलावा कुछ भी करने में असमर्थ नज़र आती है. भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को जनता की ये परेशानियां नज़र नहीं आ रही हैं. कई बड़े-बड़े राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है, इसके बावजूद वह केंद्र सरकार के घोटालों, भ्रष्टाचार और महंगाई के खिला़फ देशव्यापी आंदोलन करने की क्षमता खो चुकी है. केंद्र में कोई सक्षम नेता नहीं है, इसलिए राज्यों के नेता अपनी मनमर्जी से पार्टी का अनुशासन तोड़ रहे हैं. पार्टी में खेमेबाजी का आलम यह है कि लालकृष्ण आडवाणी अगर रथयात्रा पर निकलते हैं तो वह एक फ्लॉप शो बन जाती है. पार्टी विथ द डिफरेंस आज पार्टी ऑफ डिफरेंसेस बन गई है. पार्टी का नेतृत्व कौन कर रहा है, यह भी साफ नहीं है. संघ ने गडकरी को पार्टी संगठन मजबूत करने के लिए अध्यक्ष बनाया था, लेकिन आज दो साल के बाद पार्टी पहले से ज़्यादा असहाय और कमजोर दिख रही है.

भारतीय जनता पार्टी मुंबई की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद पहले से ज़्यादा चिंतित, भ्रमित, असंगठित, दिशाहीन और बिखरी हुई नज़र आ रही है. भाजपा नेताओं की आपसी फूट और महत्वाकांक्षाओं ने जनता को यह संदेश दिया है कि उन्हें न तो देश की चिंता है और न जनता की परेशानियों से कोई मतलब है. राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में जो कुछ हुआ, उससे यह भी साफ होता है कि नेताओं में पार्टी के भविष्य को लेकर न तो कोई सोच है और न कार्यकर्ताओं का ख्याल रखने वाले नेता बचे हैं. सबसे बड़ी बात यह कि भारतीय जनता पार्टी को मुख्य विपक्षी पार्टी होने की ज़िम्मेदारी निभाने की समझ नहीं है. यह अब अटल बिहारी वाजपेयी की भाजपा नहीं है, जिससे सरकार डर जाया करती थी. इसकी वजह भी साफ है. पार्टी विचारधारा को लेकर भ्रमित है. संगठन में सुधार कैसे हो, इस बिंदु पर दिशाहीनता की स्थिति है. भारतीय जनता पार्टी के पास कांग्रेस से अलग कोई आर्थिक नीति नहीं है. आर्थिक नीति, विदेश नीति और तमाम ऐसी नीतियों, जिनसे जनता का सीधा वास्ता है, के प्रति यह कांग्रेस से अलग नज़र नहीं आती.

भाजपा ने अपनी करतूतों से भारतीय राजनीति को 30 साल पीछे धकेल दिया है. राजनीतिशास्त्र की किताबों में 80 के दशक तक की भारतीय राजनीति को एक पार्टी के प्रभुत्व (वन पार्टी डोमिनेंस) से व्याख्यायित किया जाता है. यह सच है कि देश की जनता दो दलीय व्यवस्था चाहती है. पिछले कुछ दिनों से भाजपा में जो हो रहा है, उससे तो यह तय लगता है कि भविष्य में भारतीय राजनीति में दो दलीय व्यवस्था होगी तो ज़रूर, लेकिन दूसरी पार्टी भाजपा नहीं, कोई और होगी. तीसरे और चौथे मोर्चे को कमर कस कर मैदान में उतरना होगा, ताकि देश में प्रजातंत्र का विकास हो सके. इन मोर्चों की समस्या यह है कि ये स़िर्फ चुनाव के दौरान बनते हैं और नतीजे आने के बाद फिर से बिखर जाते हैं. इनमें सामंजस्य बैठाना बहुत ही कठिन है, इसलिए ये एक सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाने में असफल साबित हुए हैं. भारत में प्रजातांत्रिक विकास के लिए यह ज़रूरी है कि भाजपा बची रहे. भाजपा को अगर बचना है तो इसके लिए उसे कई पुरानी चीज़ें छोड़नी होंगी, नए विचार-नए तरीक़े अपनाने होंगे. भाजपा को ऐसी विचारधारा अपनानी होगी, जो सभी धर्मों, समुदायों एवं जातियों को समाहित कर सके. वर्तमान नेताओं को स्वार्थ और आपसी प्रतिस्पर्धा से ऊपर उठकर एकता बहाल करने और एक-दूसरे के विचारों को सम्मान देने की ज़रूरत है. संगठन में भी बदलाव लाना होगा, ताकि कार्यकर्ताओं को एकजुट रखा जा सके, उनका मनोबल ऊंचा रखा जा सके. संगठन में प्रजातांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देने की ज़रूरत है. भाजपा को ख़ुद को बचाने के लिए एयरकंडीशन में बैठकर मीडिया के ज़रिए राजनीति करने वालों से बचना होगा. युवाओं, किसानों, मज़दूरों एवं आम जनता के बीच काम करने वाले नेताओं को पार्टी में नेतृत्व देने की ज़रूरत है. छात्र राजनीति से जुड़े युवा कार्यकर्ताओं को भाजपा में जगह देनी होगी. 21वीं सदी के भारत के लिए भाजपा का एजेंडा क्या है, यह उसे देश की जनता को साफ-साफ बताना होगा. भाजपा को उस सांप्रदायिक एजेंडे को छोड़ना होगा, जिसकी वज़ह से दूसरी पार्टियां उसे समर्थन देने से मना करती हैं. अगर भाजपा ख़ुद को बदलने के लिए तैयार है, तो आने वाले समय में वह फिर से खड़ी हो सकती है, अन्यथा धीरे-धीरे वे राज्य भी उसके हाथ से निकल जाएंगे, जहां इस वक्त उसकी सरकार है. कमज़ोर भाजपा की वजह से देश का प्रजातांत्रिक विकास रुकेगा और देश में फिर से वन पार्टी डोमिनेंस का दौर चल पड़ेगा, जो प्रजातंत्र के लिए ख़तरनाक साबित हो सकता है. अफसोस इस बात का है कि जिन विषयों पर राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में चर्चा होनी थी, उन्हें छुआ तक नहीं गया.

देश में प्रजातंत्र मज़बूत करने के लिए भाजपा का मज़बूत होना ज़रूरी है. क्या भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को इस ज़िम्मेदारी का एहसास है? क्या देश को नेतृत्व देने की दूरदर्शिता और इच्छाशक्ति उनके पास है? यह देश का दुर्भाग्य है कि हमारे यहां विश्वसनीय विपक्ष नहीं है. कहने को तो विपक्ष है, लेकिन उसे अपने कर्तव्यों एवं ज़िम्मेदारियों का एहसास नहीं है. महंगाई हो या बेरोज़गारी या फिर जनता से जुड़ी अन्य विभिन्न समस्याएं, विपक्ष चुप है. आईपीएल घोटाला, जिसमें नेताओं, मंत्रियों, औद्योगिक घरानों एवं बीसीसीआई के अधिकारियों पर मैच फिक्सिंग से लेकर अंडरवर्ल्ड की मिलीभगत तक का खुलासा हुआ, लेकिन विपक्ष स़िर्फ खानापूर्ति के लिए संसद में शोर मचाकर फिर सुषुप्तावस्था में चला गया. महंगाई की मार से त्रस्त देश की जनता स्वयं को अनाथ महसूस कर रही है. उसके लिए सड़कों पर उतर कर आंदोलन करने वाला कोई नहीं है. टूजी घोटाला, कोयला घोटाला, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, आदर्श घोटाला एवं आईपीएल घोटाला, देश में घोटालों की लाइन लग गई है, लेकिन इसके ख़िला़फ कोई आवाज़ उठाने वाला नहीं है. देश में दलालों का इस कदर बोलबाला है कि वे अब कैबिनेट मंत्री तय करने की भूमिका निभाने लगे हैं, लेकिन सब चुप हैं. एक समय था, जब स़िर्फ 64 करोड़ रुपये के बोफोर्स घोटाले के खुलासे ने देश को हिलाकर रख दिया था और सरकार को जाना पड़ा था. आज 26 लाख करोड़ रुपये का कोयला घोटाला देश के सामने है, लेकिन हैरानी की बात यह है कि विपक्ष चुप है.

देश की जनता त्रस्त है. सरकार एक के बाद एक जनता को परेशानी में डालने वाली नीतियों पर अमल कर रही है. इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि सरकार का कोई विकल्प नज़र नहीं आ रहा है. भाजपा के नए अध्यक्ष से लोगों की उम्मीदें बढ़ी थीं, लेकिन वह भी असफल साबित हो गए. गुटबाज़ी पहले से कहीं ज़्यादा तीखी हो चुकी है. यही वजह है कि भाजपा ने जनता के सवालों को पीछे छोड़ दिया है. न कोई नई रणनीति है, न कोई वैचारिक एवं आर्थिक रोडमैप है. पार्टी में गुटबाजी का आलम यह है कि एक विफल अध्यक्ष को फिर से अध्यक्ष बना दिया गया. दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि भाजपा अपनी प्रासंगिकता और उपयोगिता को ही ख़त्म करने पर आमादा है.
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