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अब मुफ्त में नहीं पिलाया जा सकता - सरकारी कानून

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दिल्ली सरकार अब एक बूँद पानी भी मुफ्त में नहीं देगी। देश इतनी तरक्की कर गया। परमाणु बम के टॉप क्लब का सदस्य बन गया। हवाई जहाज इंद्रप्रस्थ के आकाश से नीचे उतरने के लिए इंतजार करते रहते हैं। जनता के चुनिंदा प्रतिनिधियों और मंत्रियों के पास कारें ही नहीं, अपने हवाई जहाज हैं।

बड़े नेताओं को जेबी कम्प्यूटर से देश-दुनिया की जानकारी पल-पल मिलती रहती है। जनता के लिए पेरिस-बर्लिन की तरह मेट्रो ला दी गई। सजने-सँवरने का जो सामान लंदन-न्यूयॉर्क में दुर्लभ और महँगा है, वह कनॉट प्लेस या दक्षिण दिल्ली के आलीशान बाजारों में सस्ता उपलब्ध है।

फाइव स्टार अस्पतालों में देश से ही नहीं, विदेश से मरीज पहुँचकर मोटी फीस दे रहे हैं। इसलिए जल को अमृत मानने वालों का प्याला, गिलास या छोटा-मोटा घड़ा महँगा करने में सरकार को कैसे हिचक हो सकती है? अब 6 हजार लीटर मुफ्त पानी सरकार नहीं देगी।

कुछ साल पहले तक पाँच हजार सरकारी नल थे। प्रगति के साथ उनकी संख्या एक हजार हो गई। फिर देशी-विदेशी कंपनियाँ हर कोने में बोतलों में पानी बेच रही हैं। प्याऊ और पचास पैसे-एक रुपए में रेहड़ी वाले से पानी की जरूरत कितनी रह गई?

यों सरकार इतनी मेहरबान अवश्य है कि जो अपना अगला जन्म सफल करने या सामाजिक कर्तव्य के नाते गरीबों, दूरदराज से आए मुसाफिरों को पानी पिलाना चाहे तो उन्हें दिल्ली जल बोर्ड पैसा लेकर पानी दे देगा।

वास्तविकता यह है कि अब धर्म या समाज कल्याण के नाम पर प्याऊ लगाने और पानी पिलाने वालों या संस्थाओं, न्यासों की संख्या कम होती गई है। धर्म के नाम पर बने प्रार्थना स्थलों पर पैर धोने के लिए पानी अधिक मिल सकता है, पीने का शुद्ध पानी कम होता है। होता भी है तो चढ़ावे की लाखों की आमदनी का एक हजारवाँ हिस्सा लगाना पर्याप्त है।

समाजसेवा के नाम पर बड़े लोगों के न्यास प्याऊ लगाने, मुफ्त दवा बाँटने अथवा गरीबों को कड़कती सर्दी में कंबल और शरण देने के लिए कम होते हैं। न्यास नाम का उपयोग लाखों रुपए का इनकम टैक्स बचाने के लिए अधिक होता है।

बात केवल दिल्ली तक सीमित नहीं है। भारत सरकार की विभिन्ना योजनाओं के बावजूद देश में पानी, अनाज, कपड़ा, मकान निरंतर महँगा होता जा रहा है। दिल्ली, गुड़गाँव, फरीदाबाद, चंडीगढ़ से लेकर मुंबई और चेन्नई या कोच्चि तक बीयर, वाइन या विदेशी शराब अधिक सस्ती मिलने लगी है।

शराब की खपत से सरकारी खजाना अधिक भरता है, वहीं शराब बनाने और बेचने वाले तथा उनके आका नेताओं के खातों में भी अरबों रुपया पहुँचता है।

समाजसेवा के नाम पर बड़े लोगों के न्यास प्याऊ लगाने, मुफ्त दवा बाँटने अथवा गरीबों को कड़कती सर्दी में कंबल और शरण देने के लिए कम होते हैं। न्यास नाम का उपयोग लाखों रुपए का इनकम टैक्स बचाने के लिए अधिक होता है। उदारवादी अर्थव्यवस्था में पले-बढ़े आधुनिक शिक्षित युवाओं के इस सवाल का जवाब शायद सरकार के पास नहीं है कि केवल भारत देश में पानी को अमृत क्यों कहा जाता है ? अब तेल, गैस, परमाणु ऊर्जा को वरदान क्यों नहीं माना जाता। विशाल समुद्र, नदियों, झरनों, तालाबों, कुओं और बावड़ियों के बावजूद लाखों लोग पानी के लिए हाय-हाय क्यों करते रहते हैं?

वैसे जल संरक्षण पर समर्पित भाव से काम करने वाले विशेषज्ञों की यह आशंका गलत नहीं हो सकती कि कुछ वर्षों बाद पानी के लिए युद्ध की नौबत आ सकती है। जरूरी यह है कि जल-संसाधनों और उसके प्रबंधन को सरकारी-गैर सरकारी स्तर पर सर्वोच्च प्राथमिकता मिले। चार दशक पहले केएल राव जैसे विशेषज्ञ सरकार में रहकर देश के जल संसाधनों के लिए दूरगामी कार्यक्रम बनाते थे। उन्हें सरकार में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता था।

पिछले 15 वर्षों में जल संसाधन मंत्रालय को महत्वहीन समझा जाने लगा है। जल संसाधनों, योजनाओं पर संसद में बहस के लिए समय ही नहीं होता। गनीमत यह है कि एक मंत्रालय रहने तथा सत्तारूढ़ पार्टी के जमीन से जुड़े नेताओं के दबाव के कारण किसानों द्वारा उपयोग में लाए जाने वाले जलाशयों के लिए एक राष्ट्रीय परियोजना बनी है। इसी तरह रेनफेल्ड (वर्षा पर निर्भर) क्षेत्र विकास कार्यक्रम बना है।

केंद्र सरकार ने पश्चिम बंगाल, पंजाब, जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में एक दर्जन परियोजनाओं को अपने हाथ में लिया है। इसका नब्बे प्रतिशत खर्च केंद्र सरकार उठाएगी। इसी तरह भारत-निर्माण योजना के अंतर्गत 1 करोड़ हैक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई सुविधाएँ देने का लक्ष्य तय किया गया है। फिर भी शहरी क्षेत्र हों अथवा ग्रामीण, पर्वतीय या रेगिस्तानी- सामान्य गरीब जनता को पीने योग्य तथा सिंचाई के लिए पानी का समुचित इंतजाम बहुत बड़ी चुनौती है।

राजस्थान में नहर परियोजनाओं के साथ कुओं-बावड़ियों के उद्धार के लिए 10 वर्ष पहले शुरू की गई परियोजना सचमुच लाभदायक सिद्ध हुई है। बिहार, उप्र, मप्र, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आंध्र जैसे राज्यों में भी ऐसे पारंपरिक संसाधनों को संरक्षण देने की जरूरत है। पर्यावरण संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भागीदारी के साथ जमीनी समस्याओं से निपटने के व्यावहारिक रास्तों पर कम ध्यान दिया जा रहा है।

हर साल सूखे या बाढ़ की स्थिति आने पर कुआँ खोदने की तरह 'आपात योजना' बनाना खानापूर्ति जैसा कदम है। युवाओं को जोड़ने के लिए बड़ी-बड़ी घोषणाएँ करती हैं लेकिन देश के 70 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में युवाओं को कुएँ, तालाब, नदी के साथ जोड़ने के लिए क्या कोई प्रयास हो रहे हैं? एक समय था जब कुएँ, तालाब, नदी के पास जाने के लिए जूते 50 कदम दूर उतार दिए जाते थे। यह धार्मिक पवित्रता से अधिक पानी की शुद्धता के लिए आवश्यक माना जाता था। धीरे-धीरे तालाब नष्ट होते गए।

इस सप्ताह राज्यसभा में बिहार के एक सांसद ने मौर्यकालीन तालाब संस्कृति का हवाला देते हुए केंद्रीय दल भेजकर तालाबों को बचाने की माँग की। आश्चर्य इस बात का है कि यह प्रयास प्रादेशिक तथा स्थानीय स्तर पर क्यों नहीं होता? स्कूल-कॉलेज में छुट्टियों के दौरान कुएँ-तालाब की मरम्मत और रखरखाव के लिए कम से कम दो-तीन सप्ताह की सेवा अनिवार्य क्यों नहीं की जा सकती? कुओं और तालाब के रखरखाव अथवा नदियों को गाँव-कस्बे-महानगर की गंदगी-कूड़े, औद्योगिक कचरे से बचाने का दायित्व सरकार के साथ गैर सरकारी संगठन, राजनीतिक पार्टियों के स्वयंसेवक, लाखों रुपया लेने वाले समाजसेवी संगठन क्यों नहीं संभालते?
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