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भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत समर्थक

केजरीवाल के प्रत्यक्ष लोकतंत्र के खतरे

स्विटज़रलैंड अंतर्राष्ट्रीय रेड क्रॉस और घोर मानवाधिकार हनन के खिलाफ जिनेवा सम्मेलन का जन्मस्थान है। इस देश को धार्मिक सहिष्णुता का गढ़ माना जाता है। इसके बावजूद 2009 में, स्विटज़रलैंड ने नागरिकों के जनमत के आधार पर मस्जिदों की मीनारों पर राष्ट्रव्यापी प्रतिबंध लगाया। क्योंकि स्विटज़रलैंड एक ऐसा देश है, जिसने प्रत्यक्ष लोकतंत्र को अपनाया है, लिहाज़ा जनमत का फैसला वहां का कानून बन गया।

इस कानून को धार्मिक स्वतंत्रता पर कुठाराघात कहकर व्यापक तौर पर निंदा की गई। यूरोप और मध्य एशिया में एमनेस्टी इंटरनेशनल के उप-कार्यक्रम निदेशक डेविड डियाज़-जॉगिक्स ने टिप्पणी की: “स्विटज़रलैंड एक ऐसा देश है, जहां धार्मिक सहिष्णुता की लंबी परंपरा रही है और जहां सताए हुए लोगों को शरण देने का प्रावधान है, ऐसा देश इस विकृत विभेदकारी प्रस्ताव का अनुमोदन करे, ये चौंकानेवाले है।”

फ्रेंच दैनिक ‘लिबरेशन’ के एक रिपोर्टर जीन क्वाट्रेमेर ने उपयुक्त ढंग से मीनारों पर प्रतिबंध और प्रत्यक्ष लोकतंत्र के खतरे के बीच संबंधों का खाका ये कहते हुए खींचा: “एक बार फिर, प्रत्यक्ष लोकतंत्र ने साबित किया है कि इसकी प्रकृति काफी खतरनाक है। लोगों को दूसरों से खतरों को ज़ाहिर करने की दी गई स्वीकृति, तर्कों को तिलांजलि देना और अल्पावधि-हितों पर फोकस करना, निश्चित तौर पर जनमत संग्रह सभी तरह के जनोत्तेजकों के हाथों में एक खतरनाक यंत्र है। ये समझना आसान है कि क्यों कई लोकंतात्रिक देशों ने इसे सीधे तौर पर गैरकानूनी बनाया है।”

भारत उन कई देशों में है, जिन्होंने प्रत्यक्ष लोकतंत्र को नहीं अपनाया। हम प्रतिनिधित्व पर आधारित एक लोकतंत्र हैं, जहां लोग अपने लिए कानून और नीतियां बनाने हेतु प्रतिनिधियों को चुनते हैं। हालांकि, पिछले दो-एक सालों से, अरविंद केजरीवाल और उनके समर्थक स्विस-सरीखे प्रत्यक्ष लोकतंत्र की ज़ोर-शोर से वकालत कर रहे हैं। श्री केजरीवाल दावा करते हैं कि प्रत्यक्ष कानून निर्माण विशेष हितों की हिफाज़त करने वाले कृतज्ञ भ्रष्ट राजनेताओं को दरकिनार करने की स्वीकृति प्रदान कर नागरिकों की सुरक्षा करते हैं।

श्री केजरीवाल ने जनमत संग्रहों और पहलकदमी को प्रस्तुत करने की मांग की है। जनमत संग्रह एक पद्धति है, जहां लोग, प्रत्यक्ष मतों से, नए कानून, नीति अथवा संसद द्वारा पारित मौजूदा कानून को नकारने का फैसला कर सकते हैं। दूसरी तरफ, एक पहलकदमी में नागरिकों का समूह राष्ट्रव्यापी प्रत्यक्ष मत हेतु नया मसौदा प्रस्तुत कर नए कानून अथवा संविधान संशोधन के लिए पहल करता है। हाल ही में, जिस तरीके से बहु-ब्रांड खुदरा में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को मंजूरी देने के लिए संसद में वोटिंग हुई, उसने गुस्से को भड़काया, श्री केजरीवाल ने एक बार फिर इस मुद्दे पर फैसले के लिए संसद में वोटिंग की बजाय राष्ट्रव्यापी जनमत संग्रह पर ज़ोर डाला।

मीनारों पर प्रतिबंध लगाने वाले स्विस जनमत संग्रह के भारत सरीखे देशों में प्रत्यक्ष लोकतंत्र की मांग हेतु गहरे निहितार्थ हैं, जहां कई अल्पसंख्यक गुट हैं। ये दलील दी जा सकती है कि व्यापक भागीदारी, अल्पसंख्यक समूहों को संभावित दमनकारी नीतिगत परिणामों को झेलने के लिए छोड़ती है (जैसे स्विस मीनार प्रतिबंध) जिनका समर्थन बहुसंख्यक आबादी के एक हिस्से (जैसे 50 फीसदी जमा एक वोट) ने किया।

वे अमेरिकन स्टेट्स जिन्होंने प्रत्यक्ष लोकतंत्र को अपनाया और चुनावों को लेकर पहलकदमी के दुर्भाग्यशाली उदाहरण बनाए, इस मुद्दे को स्पष्ट करते हैं। इनमें से कुछ पहलों में शामिल है, हिस्पैनिक्स के लिए बहुभाषी कार्यक्रमों को समाप्त करना, कानून में एक प्रावधान जो समलैंगिकों को बगैर भेदभाव के संरक्षण देता है और अवैध प्रवासियों को स्वास्थ्य, शिक्षा और मेडिकल फायदों जैसी आधारभूत सुविधाओं से वंचित रखना।

शायद, इसी वजह से भारतीय संविधान निर्माता चाहते थे कि कानून चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा बनाए जाएं, हालांकि संविधान सभा के अंतरिम अध्यक्ष, सचिदानंद सिन्हा ने मसौदा तैयार करने वालों के संज्ञान के लिए स्विस संविधान की ओर भी ध्यानाकर्षण दिलाया।

संविधान निर्माताओं ने इसकी बजाय यूएस संविधान, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया के राष्ट्रमंडल मॉडलों और ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था पर ज्यादा भरोसा किया। उन्होंने भारत के राष्ट्रपति के चुनाव और संविधान संशोधन के मामले में राष्ट्रव्यापी जनमत संग्रह के विचार को खारिज कर दिया।

संविधान ने जिस सरकार को ढांचागत किया वो सत्ता के प्रसार के ज़रिए प्रजा पीढ़क शासन को रोकने की कोशिश थी। इसलिए उदाहरणस्वरूप, इसकी तीन शाखाओं की प्रबंधकीय, संसदीय और न्यायिक शक्तियां पृथक हैं। संविधान ने संघवाद के ज़रिए शक्ति को छितरा दिया: ऐसा उसने केन्द्र और राज्यों के बीच सत्ता का विभाजन करके किया। ये संतुलन प्रत्यक्ष लोकतंत्र में गायब है। विभाजित-शक्ति व्यवस्था जो विचार-विमर्श और अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व, अल्पसंख्यक अधिकारों को बढ़ावा देती है, प्रतिनिधि की रोकटोक के बगैर जोखिमपूर्ण होती है।

हालांकि, ऐसा नहीं कहा जा सकता, भारत में प्रत्यक्ष लोकतंत्र की संपूर्ण मांगें औचित्यहीन हैं। मशहूर राजनीतिक विज्ञानी येहेज़केल ड्रॉर ने अन्वेषण किया कि प्रत्यक्ष लोकतंत्र छोटे समुदायों में अपेक्षाकृत अच्छा कर सकता है, जहां लोगों के ज्यादातर मुद्दों पर व्यक्तिगत अनुभव होते हैं, ये देखते हुए कि ये एक उपयुक्त विचारक प्रक्रिया और जटिल मुद्दों की पेशेवर व्याख्या के साथ संयोजित किया जाता है। जीन-जैक्स रूसो भी प्रत्यक्ष लोकतंत्र के हिमायती थे, लेकिन एक बार फिर छोटे प्रांतों के लिए।

प्रत्यक्ष लोकतंत्र सरकार का एक शक्तिशाली प्रकार है, जहां प्रत्येक नागरिक नामित छोटे इलाके में वार्तालाप में सहयोग देने की क्षमता (और इच्छाशक्ति) रखता हो। कुछ हद तक, अल्पसंख्यक दमन की चिंताएं प्रत्यक्ष लोकतंत्र में निहित होती हैं, जो प्रमुख तौर पर तब कम होती हैं, जब ये स्थानीय स्तर पर हर किसी मामले में लागू की जाती हैं, जैसे स्वास्थ्य, साफ-सफाई और आधारभूत सेवाओं का प्रावधान। छोटे क्षेत्रों में, पूरा समुदाय एकत्र हो सकता है और सक्रिय तौर पर अपने प्रतिदिन के क्रियाकलाप से जुड़े मुद्दों पर चर्चा कर सकता है।

इसे समझते हुए, संविधान निर्माताओं ने संविधान के अनुच्छेद 40 का मसौदा तैयार किया, जो राज्यों के लिए चुने गए प्रतिनिधियों वाली ग्राम पंचायतों की स्थापना ज़रूरी बनाता है और उन्हें आत्म-शासन की एक इकाई के तौर पर शक्ति भी प्रदान करता है। इससे आगे, संविधान के 73वें और 74वें संशोधनों के अंतर्गत ग्राम सभाओं और पंचायतों का गठन, प्रोफेसर ड्रॉर और रूसो द्वारा प्रतिपादित प्रत्यक्ष लोकतंत्र के सम्मोहक उदाहरण हैं।

2008 का मॉडल नगर राज बिल शहरों में ग्राम सभाओं के अनुरूप इकाईयां बनाने की बात करता है। ये बिल जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीनीकरण मिशन के तहत जरूरी सुधार है, जिसका अर्थ हुआ, राज्यों को जेएनयूआरएम कार्यक्रम के तहत फंडिग की पात्रता के लिए बिल-आधारित समुदाय-सहभागी कानून बनाना अनिवार्य है।

श्री केजरीवाल और उनकी नई राजनीतिक पार्टी दुर्लभ और शायद विचित्र भी है, जो कई राजनीतिक दलों की विषमता दिखाती है, जिनकी मुख्य समस्या नए विचारों का अभाव, गहरी जातिगत-राजनीति और भ्रष्टाचार है। भारतीय राजनीति में खलबली के वक्त, श्री केजरीवाल खेल से दूर पर महत्वपूर्ण खिलाड़ी हैं। जैसा प्रताप भानु मेहता ने हाल ही में इंगित किया, विकेन्द्रीकरण को लेकर श्री केजरीवाल की तत्परता चाह जगाने वाली है। हालांकि, उन्हें असंवैधानिक राष्ट्रव्यापी जनमत संग्रह के शब्दाडंबरों को छोड़कर संवैधानिक तरीकों पर चलना चाहिए। शुरुआत में, वो सभी राज्यों से मॉडल नगर राज बिल के तुरंत कार्यान्वयन की जरूरत पर ज्यादा बात कर सकते हैं, जो शहरी परिषदों के गठन की बात करता है।

-करण सिंह त्यागी पेरिस की एक कानून फर्म में एक एसोसिएट एटॉर्नी हैं। वे हारवर्ड लॉ स्कूल से एलएलएम कार्यक्रम में स्नातक हैं।

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