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भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत समर्थक

नेशनल हेरल्ड : कांग्रेस का नया दो हज़ार करोड़ का घोटाला


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"...कांग्रेस की तरफ़ से महासचिव जनार्दन द्विवेदी का बयान आया कि कांग्रेस ने नेशनल हैरल्ड को फिर से पुनर्जीवित करने के लिए नब्बे करोड़ का लोन दिया था क्योंकि उसके लिए अख़बार का फिर से निकलना एक भावुक मुद्दा है, लेकिन उनकी बातों का झूठ इसी बात से साबित हो जाता है कि 2008 में जब कांग्रेस ने लोन दिया था तब अख़बार बंद हो रहा था और कर्मचारियों के बकाए के भुगतान के लिए नब्बे करोड़ रुपए दिए गए थे. इतने सालों तक यह बात दबी रही कि कांग्रेस ने एजेएल को लोन दिया. मामला बिल्कुल साफ़ है कि कांग्रेस के सर्वोच्च नेताओं ने एजेएल को हथियाने के लिए ही यंग इंडियन  का गठन किया..." 


घोटाला क़रीब दो हज़ार करोड़ रुपए की संपत्ति का है और इस बार इसके तार कांग्रेसी अख़बार नेशनल हेरल्ड से जुड़े हैं. घोटाले में सोनिया गांधी और राहुल गांधी जैसे कांग्रेस के पारिवारिक दिग्गजों पर सीधा आरोप है कि उन्होंने अवैध तरीक़े से अख़बार की संपत्ति पर कब्ज़ा कर लिया. लगातार भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी कांग्रेस के लिए यह घोटाला एक नई मुसीबत लेकर आया है. विरोधियों ने तो इस मामले में पार्टी की मान्यता ही ख़त्म करने की मांग कर डाली. इस घटना ने समाचार मीडिया की आड़ में मुनाफ़ा कमाने वाले निजी घरानों की नैतिकता को तो कटघरे में खड़ा किया ही है, प्रभावशाली नेताओं और राजनीतिक पार्टियों के मीडिया में निवेश करने को लेकर भी सवाल उठाये हैं. इससे यह भी पता चलता है कि भारत का ज़्यादातर समाचार मीडिया अब पूरी तरह बड़ी पूंजी का गुलाम हो गया है जिसमें निजी फायदा उठाने की अनगिनत साजिशें चलती रहती हैं. कभी-कभी इन पर से पर्दा हटता है तो करोडों-खरबों के घोटाले नज़र आते हैं. लेकिन ये पर्दे के पीछे चलने वाले घोटालों की सिर्फ़ एक झलक (टिप ऑफ द आइसबर्ग) है. नेशनल हेरल्ड का मामला भी ऐसे घोटालों का एक छोटा सा उदाहरण है.  

नवंबर महीने की दो तारीख़ को कांग्रेस पार्टी ने मान लिया कि उसने नेशनल हेरल्ड निकालने वाली कंपनी एसोसिएटेड जर्नल लिमिटेड (एजेएल) को नब्बे करोड़ रुपए का ब्याज़ मुक्त लोन दिया था. कांग्रेस की तरफ़ से बयान आया कि उसने 2008 में यह कर्ज नेशनल हेरल्ड को दोबारा शुरू करने के लिए दिया था और अख़बार का प्रकाशन उसके लिए एक भावुक मुद्दा है. वह (बेशर्मी से नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को लागू करने वाली पार्टी) अख़बार को फिर से शुरू कर गांधी-नेहरू के आदर्शों (?) को आगे बढ़ाना चाहती है. लेकिन इन लोक लुभावन बातों के पीछे की जो हक़ीक़त सामने आई उससे लोकतंत्र की आड़ में भ्रष्टाचार का परचम फहराने वालों का चेहरा पूरी तरह बेपर्दा हो गया. कांग्रेस पार्टी और उसके सर्वोच्च नेताओं ने भ्रष्टाचार का इतना महीन खेल खेला है कि उसे 
समझने के लिए ठीक-ठाक समझदार लोगों को भी अच्छी-ख़ासी कसरत करनी पड़ जाए.

नेशनल हैरल्ड का प्रकाशन बंद हुए चार साल बीत चुके हैं. अब पूरा खेल नेशनल हेरल्ड को प्रकाशित करने वाली कंपनी एसोसिएटेड जर्नल लिमिटेड (एजेएल) की दो हज़ार करोड़ रुपए की संपत्ति को हथियाने का है. इस पूरे मामले में बड़ी चालाकी से कांग्रेस पार्टी ने अपनी अध्यक्ष सोनिया गांधी और महासचिव राहुल गांधी की नव गठित कंपनी यंग इंडियन को सारे अधिकार देने का रास्ता साफ़ कर डाला. सोनिया के दामाद रॉबर्ट बाड्रा पर आरोप लगने के बाद अब सीधे सोनिया-राहुल पर गड़बड़ी कर संपत्ति हथियाने का आरोप है. नेशनल हेरल्ड की स्थापना कभी कांग्रेस ने आज़ादी की लड़ाई को धार देने के लिए की थी. इसे प्रकाशित करने वाली कंपनी एजेएल उर्दू में कौमी आवाज़ और हिंदी में नवजीवन का भी प्रकाशन करती रही है. नेशनल हेरल्ड को उन्नीस सौ अड़तीस में जवाहरलाल नेहरू ने शुरू किया था, छोटे अरसे के लिए ख़ुद नेहरू भी इसके संपादक रहे. तब अख़बार का एक ही संस्करण लखनऊ से छपता था. आज़ादी के पक्ष में  होने की वजह से ब्रिटिश सरकार ने उन्नीस सौ बयालीस से उन्नीस सौ पैंतालीस तक इस पर पाबंदी लगा दी थी. उन्नीस सौ छियालीस तक के रामाराव इसके संपादक रहे. उन्नीस सौ सैंतालीस में आज़ादी मिलने के बाद नेहरू प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने नेशनल हैरल्ड के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया. तब उनका  सोचना था कि एक आज़ाद देश में अख़बार को ख़ास राजनीतिक पार्टी से प्रभावित नहीं होना चाहिए. तब से अख़बार के संपादक मनीकोंडा चलपति राव थे. वे नेहरू के अच्छे दोस्त थे लेकिन नेहरू सरकार की आलोचना करने से कभी नहीं झिझकते थे. चलपति राव उन्नीस सौ छिहत्तर तक अख़बार के संपादक रहे. कहा जाता है कि तब कांग्रेस का प्रकाशन होने के बाद भी अख़बार को बहुत सारे मामलों में संपादकीय स्वतंत्रता थी.

1964 में नेहरू की मौत के बाद स्थितियां बदलीं. 1968 में अख़बार का दिल्ली संस्करण भी शुरू हुआ. इंदिरा गांधी को आलोचना पसंद नहीं थी इसलिए अख़बार का संपादकीय पतन होना शुरू हो गया. चलपति राव के जाने के बाद कुछ वक़्त के लिए खुशवंत सिंह भी अख़बार के संपादक रहे. लेकिन खुशवंत सिंह अख़बार से कभी तनख़्वाह नहीं ले पाए. वे इलस्ट्रेटेड वीकली छोड़कर आए थे, तब अख़बार में बकाया वेतन की मांग को लेकर कर्मचारियों की हड़ताल चल रही थी. ख़ुशवंत सिंह ने सबसे वादा किया कि जब तक  सभी कर्मचारियों को पैसा नहीं मिल जाता तब तक वे भी अपनी तनख्वाह नहीं लेंगे. इस बात का ज़िक्र उन्होंने अपनी किताब ट्रुथ, लव एंड लिटिल मलाइस में किया है. सत्ताधारी पार्टी का अख़बार होने के बाद भी तब अख़बार में लगातार आर्थिक दिक्कतें बनी रहती थीं. ख़ुशवंत लिखते हैं कि अख़बार में पैसे की कमी की वजह से कर्मचारियों का असंतोष बढ़ने पर रहस्यमय तरीक़े से दफ़्तर में रुपयों से भरे सूटकेस पहुंच जाते थे और कर्मचारियों को उनके बकाये का भुगतान किया जाता था (सूटकेस में आने वाले पैसों की वैधता का अनुमान लगाएं!). 1990-92 के बीच अख़बार के संपादक रहे शुभब्रता भट्टाचार्य का कहना है कि अख़बार का वित्तीय प्रबंधन कभी ठीक तरह से नही हो पाया. सिर्फ़ छियालीस से पचास के बीच में जब फिरोज़ गांधी प्रबंध निदेशक थे तभी काम ठीक चला था.

वित्तीय संकट की वजह से 2008 में अख़बार को बंद करना पड़ा था. तक कांग्रेस पार्टी ने कर्मचारियों का बकाया चुकाने के लिए अख़बार चलाने वाली कंपनी एसोसिएटेड जर्नल लिमिटेड को नब्बे करोड़ रुपये का ब्याज मुक्त कर्ज दिया था. अख़बार बंद होने के बाद एजेएल सिर्फ़ एक रीयल एस्टेट कंपनी बनकर रह गई. इसकी दिल्ली, मुंबई और लखनऊ में संपत्ति थी और बैलेंस शीट में दो हज़ार करोड़ रुपए थे. इसके बदले में वो कांग्रेस की नब्बे करोड़ रुपए की देनदार हो गई. एजेएल में हज़ार से ज़्यादा शेयर होल्डर थे. कांग्रेस का पैसा चुकाने के बाद भी कंपनी अपनी अचल संपत्ति को बांटकर हिस्सेदारों में बांट सकती थी लेकिन कंपनी ने ऐसा नहीं किया. सारे कायदे कानूनों को ताक पर रखकर राहुल गांधी और सोनिया गांधी की मालिकाने वाली कंपनी यंग इंडियन ने एजेएल को ख़रीद लिया.

2010 के नवंबर महीने में अचानक पांच लाख रुपए की लागत से सेक्शन 25 के तहत यंग इंडियन नाम की एक नई कंपनी बनायी गई. इस कंपनी में राहुल और सोनिया की 38-38 फीसदी (कुल छिहत्तर फ़ीसदी) की हिस्सेदारी थी. बाक़ी बारह-बारह फ़ीसदी की  हिस्सेदारी परिवार के वफ़ादार ऑस्कर फर्नांडिस और मोतीलाल वोरा की है. दिसंबर दो हज़ार दस में, कांग्रेस पार्टी की तरफ से एजेएल को दिए गए नब्बे करोड़ रुपए से ज़्यादा के लोन का अधिकार यंग इंडियन कंपनी के पास आ गया. इसके लिए लिए कंपनी ने पार्टी को सिर्फ पचास लाख रुपए चुकाए. कांग्रेस ने पचास लाख घटाकर नवासी दशमलव सात पांच लाख का घाटा दिखाया. इससे यंग इंडिया को एजेएल से नब्बे करोड़ रुपए की वसूली का अधिकार मिल गया. आखिरकार फरवरी दो हज़ार बारह में एजेएल ने नब्बे करोड़ रुपए को यंग इंडियन के शेयरों में बदल दिया. ऐसा करने से यंग इंडियन एजेएल के निन्यानबे फीसदी हिस्से की मालिक हो गई. अब एजेएल पर पूरी तरह यंग इंडियन का कब्ज़ा है.

जब एजेएल के पास दो हज़ार करोड़ से भी ज्यादा की संपत्ति है तो उसने सिर्फ़ नब्बे करोड़ में अपनी पूरी हिस्सेदारी क्यों छोड़ दी. कांग्रेस की तरफ़ से महासचिव जनार्दन द्विवेदी का बयान आया कि कांग्रेस ने नेशनल हैरल्ड को फिर से पुनर्जीवित करने के लिए नब्बे करोड़ का लोन दिया था क्योंकि उसके लिए अख़बार का फिर से निकलना एक भावुक मुद्दा है, लेकिन उनकी बातों का झूठ इसी बात से साबित हो जाता है कि 2008 में जब कांग्रेस ने लोन दिया था तब अख़बार बंद हो रहा था और कर्मचारियों के बकाए के भुगतान के लिए नब्बे करोड़ रुपए दिए गए थे. इतने सालों तक यह बात दबी रही कि कांग्रेस ने एजेएल को लोन दिया. मामला बिल्कुल साफ़ है कि कांग्रेस के सर्वोच्च नेताओं ने एजेएल को हथियाने के लिए ही यंग इंडियन  का गठन किया. इसलिए चुन-चुनकर इसमें गांधी परिवार का वर्चस्व बनाया गया.

नेशनल हेरल्ड से जुड़े कांग्रेस के इस घोटाले की ख़बर जब जनता पार्टी के सुब्रह्मण्यम स्वामी को मिली तो वे तुरंत कोर्ट चल गए और उऩ्होंने पूरे घोटाले की परत दर परद खोलते हुए कांग्रेस पार्टी की मान्यता रद्द करने की मांग कर डाली. उन्होंने ऐसी ही मांग चुनाव आयोग और प्रधानमंत्री से भी की. लेकिन जैसा कि होना था, वर्तमान व्यवस्था में कांग्रेस की सदस्यता रद्द होना लगभग असंभव है, वैसा ही हुआ. कोर्ट ने भी स्वामी की बात मानने से इनकार कर दिया. स्वामी इस बिनाह पर यह मांग कर रहे थे कि एक राजनीतिक पार्टी को व्यवसाय के लिए पैसा देने का अधिकार नहीं है. स्वामी ने यह भी आरोप लगाया कि राहुल गांधी ने एजेएल में अपनी हिस्सेदारी (छोटी ही सही) का ब्यौरा भी चुनाव आयोग को सौंपे अपने हलफनामे में नहीं दिया है इसलिए उनकी लोकसभा सदस्यता भी रद्द की जानी चाहिए. इन सारी घटनाओं को लेकर स्वामी ने बाक़ायदा सारे दस्तावेज पेश किए. यहां देखा जाए तो स्वामी व्यवस्था में निहित भ्रष्टाचार की जड़ों पर चोट करने के बजाय सिर्फ़ कानूनी समाधान तलाश रहे थे, नव उदारवादी लोकतंत्र की अनैतिकता उनके सवालों के घेरे से बाहर है.

इस घटनाक्रम से इस बात का भी पता चलता है कि लोकतंत्र के नाम पर किस तरह देश की जनता को बेवकूफ़ बनाया जा रहा है. कोई यह सवाल नहीं उठा रहा कि कांग्रेस के पास नब्बे करोड़ रुपए उधार देने के लिए पैसा कहां से आया. दूसरे शब्दों में यह भी पूछा जा सकता है कि राजनीतिक पार्टियों के पास अरबों-खरबों के हिसाब से पैसा आता कहां से है? इसका जवाब सिर्फ़ इतना दिया जाता है कि उनके समर्थकों ने उन्हें चंदा दिया है, तो ऐसे अरबों का चंदा देने वाले समर्थक देश के बड़े आपराधिक कॉरपोरेट कंपनियों के अलावा और कौन हो सकते हैं? कांग्रेस-भाजपा जैसी राजनीतिक पार्टियां इस बात को साफ़ क्यों नहीं करती कि उनके पास इतना पैसा आया कहां से है. स्वाभाविक है कि जब पूंजीपतियों के अवैध पैसे से पार्टियां और सरकारें चलेंगी तो फैसले भी उन्हीं के पक्ष में होंगे. ‘कॉरपोरेट लोकतंत्र’ का चरित्र यहां पर बिल्कुल साफ हो जाता है लेकिन मीडिया का इस्तेमाल कर जनता में ऐसी झूठी चेतना का निर्माण किया जाता है कि जैसे कॉरपोरेट लोकतंत्र से महान कोई व्यवस्था नहीं है. आम जनता भी इस छद्म को नहीं समझ पाता. उसे यही रटाया जाता है न्यूनतम अर्हता को पूरा करने वाला कोई भी व्यक्ति विधानसभा या लोकसभा का चुनाव लड़ सकता है और राजनीतिक पार्टी बना सकता है. वह देश का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बन सकता है. लेकिन हक़ीक़त यही है कि राजनीति करने के लिए जब तक कॉरपोरेट का हाथ सर पर न हो आम आदमी के लिए इस लोकतंत्र में राजनीतिक हिस्सेदारी हासिल कर पाना असंभव है. सवाल यह भी है कि जिस देश की क़रीब अस्सी फ़ीसदी आबादी बीस रुपए से कम रोज कमाती है. उस तबके का इंसान चुनाव लड़ने के लिए हज़ारों रुपए पंजीकरण शुल्क कहां से लाएगा? माना उसने किसी तरह इतना पैसा इकट्ठा कर भी लिया तो वह चुनाव प्रचार के लिए करोड़ों रुपए कैसे खर्च करेगा?  बड़ी राजनीतिक पार्टियों के पास आने वाले पैसे की वैधता का सवाल यहां पर बहुत अहम हो जाता है. जब अवैध पैसे के इस्तेमाल से ऐसी पार्टियां सरकार में पहुंचेंगी तो वह कैसे आम जनता के पक्ष में न्याय की बात कर सकती हैं?

कांग्रेस पार्टी के कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा एजेएल के एक प्रमुख डायरेक्टर भी थे उन्होंने ही सारे मामले में प्रमुख भूमिका निभाई. वोरा यंग इंडियन के भी प्रमुख सदस्य हैं और उनकी भी इस नई कंपनी में बारह फीसदी की हिस्सेदारी है, जबकि एजेएस में उनकी एक फ़ीसदी से भी कम की हिस्सेदारी थी. एजेएल के ज्यादातर पुराने शेयर होल्डर मर-खप गए हैं लेकिन कंपनी ने उनका ब्यौरा रजिस्ट्रार ऑफ़ कंपनी के पास नहीं दिया था. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने जब पहले कांग्रेस और गांधी परिवार की पोल खोली तो कांग्रेस स्वामी के आरोपों को चुनौती देने की मुद्रा में दिखाई दी. राहुल गांधी के ऑफिस ने स्वामी पर अवमानना का केस दर्ज करने की धमकी दी. बाद में कांग्रेस की तरफ़ से इस बात को टाल दिया गया. कांग्रेस की तरफ़ से बयान आया कि स्वामी का तो काम भी कांग्रेस पर कीचड़ उछालना है इसलिए उसे उनके आरोपों से कोई फ़र्क नहीं पड़ता है लेकिन असल बात तो यह है कि स्वामी ने जो आरोप लगाए हैं उसका कांग्रेस के पास कोई तार्किक जवाब नहीं है.

नेशनल हेरल्ड से जुड़ा एक और घोटाला इंदौर से भी सामने आया है. अस्सी के दशक में कांग्रेस के अर्जुन सिंह ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में अख़बार के नाम पर वहां बाईस हज़ार स्वायर फीट की ज़मीन मुहैया कराई थी. अब वह ज़मीन विष्णु गोयल नाम के एक चिट फंड  के व्यवसाय से जुड़े एक धंधेबाज़ के कब्ज़े में है. बाद में बीजेपी सरकार ने अख़बार के प्रकाशन को अवैध घोषित कर दिया और दो हज़ार ग्यारह में इंदौर डेवलेपमेंट अथॉरिटी ने लीज वापस लेने का आदेश दिया लेकिन विष्णु गोयल ने इसकी शिकायत प्रेस परिषद में की और हाईकोर्ट से स्टे लेने मे कामयाब हो गया. इस तरह आज भी उसके अख़बार का ज़मीन पर कब्ज़ा है. कहा जाता है कि गोयल कांग्रेस नेता मोती लाल वोरा का बेहद करीबी है और उऩ्होंने ही उसके लिए सारी व्यवस्था की है. दिखावे के लिए हर रोज़ रायपुर से नेशनल हेरल्ड का का प्रकाशन जारी है, जिसमें कुछ प्रतियां प्रिंट कर सूचना विभाग में  उसका अस्तित्व बचा के रखा गया है. अख़बार ने एक वेब साइट भी बनाई है. जिसका पता है- http://nationalherald.org/. यह घटना इस बात का भी सबूत है कि कांग्रेस के सहयोग से ही नेशनल हेरल्ड अपनी करोड़ों की संपत्ति जोड़ पाया. दिल्ली, मुंबई, लखनऊ के अलावा इंदौर में भी इसके पास बड़ी संपत्ति होना इस बात का प्रमाण है. सारा मामला अब उस संपत्ति को हथियाने को लेकर चल रहा है. कांग्रेस के सर्वोच्च नेता अब इस संपत्ति को दूसरे के पास नहीं देना चाहते इसलिए एक पब्लिक लिमिटेड कंपनी को निजी मिल्कीयत वाली कंपनी बना दिया गया और कांग्रेस के समर्थक सेठ को इंदौर की ज़मीन सौंप दी गई.

हेरल्ड वाले मामले से देश में मीडिया संबंधित सही नियम-कायदों के अभाव का भी पता चलता है. न तो यहां तरह-तरह का धंधा कर रहे पूंजीपतियों के समाचार मीडिया पर निवेश करने को लेकर  कोई पाबंदी है और न ही राजनीतिक पार्टियों द्वारा सत्ता का इस्तेमाल कर मीडिया का कारोबार खड़ा करने पर कोई रोक है. आज देशभर में, उत्तर से लेकर दक्षिण तक कई राजनीतिक पार्टियों का पैसा मीडिया में लगा हुआ है. इस तरह पूंजीपति और राजनीतिक पार्टियां देश के जनमत को मनमानी दिशा मे हांकने में जुटे हुए हैं. साथ ही मीडिया का इस्तेमाल अपना व्यवसाय और राजनीति को चमकाने के लिए धड़ल्ले से हो रहा है. 


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