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भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत समर्थक

लोकपाल पर अन्ना और सरकार आमने-सामने


राज्यसभा की सेलेक्ट कमिटी ने लोकपाल बिल में जो संशोधन किए हैं, उसके बाद यह उम्मीद की जानी चाहिए कि बिल इस सत्र में पास हो जाएगा। उसने बिल से लोकायुक्त की नियुक्ति का प्रावधान हटा कर झगड़े की एक बड़ी वजह को हटा दिया है। मूल विधेयक में ऐसी व्यवस्था थी कि लोकपाल यह देखे कि राज्यों में भी साल भर के भीतर लोकायुक्तों की नियुक्ति कर दी जाए। इस प्रावधान की वजह से क्षेत्रीय पार्टियां इस विधेयक के खिलाफ थीं। 

उनका मानना था कि इससे केंद्र को राज्यों के भ्रष्टाचार-विरोधी ढांचों के मामले में टांग अड़ाने का एक मौका मिल जाएगा। ऐसा लगता है कि कमिटी ने आम लोगों की इस भावना को भी समझा है कि प्रधानमंत्री को भी लोकपाल के दायरे में रखा जाना चाहिए। हालांकि विभिन्न सरकारों का इस मुद्दे पर बिल्कुल उलटा मत रहा है। यूपीए और इससे पहले एनडीए सरकार इस बात के सख्त खिलाफ रही है कि पीएम को लोकपाल की निगरानी के दायरे में लाया जाए। वे अब कुछ समय पहले तक यह दलील देती रही हैं कि इससे सरकार और प्रशासन बाधित होगा। लेकिन अन्ना आंदोलन के साथ बीजेपी का मत भी बदल गया और अब कांग्रेस के पास इसका अनुकरण करने के सिवा कोई विकल्प नहीं था। 

वैसे, शुरू में मौजूदा कैबिनेट ने भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इसके दायरे में लाने की मांग खारिज कर दी थी। तीसरा विवादास्पद मुद्दा सीबीआई को सरकार के नियंत्रण से बाहर निकालने का था, जिस पर कमिटी ने बहुत मामूली सी छूट दी है। उसका सुझाव है कि जिन मामलों की जांच का काम लोकपाल उसे सौंपेंगे, उन मामलों की जांच में वह लोकपाल के प्रति उत्तरदायी होगी। लेकिन बाकी आपराधिक मामलों की जांच के मामले में वह कार्यपालिका के अधीन रह कर ही काम करेगी। हां, लोकपाल के अधीन एक अपना एंटी करप्शन ब्यूरो भी होगा। कमिटी ने इस क्लॉज पर सहमति जताई है कि लोकपाल के नौ सदस्यों वाली कमिटी में पचास प्रतिशत लोग अनुसूचित जातियों, जनजातियों, दूसरी पिछड़ी जातियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के बीच से आने चाहिए। कमिटी ने इस मुद्दे पर बीजेपी की इस दलील को नामंजूर कर दिया है कि यह प्रस्तावित आरक्षण संवैधानिक रूप से मान्य नहीं होगा। लेकिन कानून मंत्रालय ने इस बारे में अपना तर्क दिया है कि पचास प्रतिशत के क्लॉज को आर्टिकल 15 के तहत स्वीकार किया जा सकता है। जाहिर है, बीजेपी के विरोध के बावजूद इस क्लॉज को कायम रखने के फैसले के लिए बिल पास करा लेने के बावजूद कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।

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