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भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत समर्थक

किसी के बाप की जायदाद नहीं है आम आदमी


अरविंद केजरीवाल अब सिर्फ भ्रष्टाचार विरोधी कार्यकर्ता नहीं रहे हैं। वह लगातार राजनीतिक पार्टियों के लिए एजेंडा सेट कर रहे हैं। देश की दो सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टियां बीजेपी और कांग्रेस अब तक भारतीय वोटरों पर अपना एकाधिकार समझती रही हैं। लेकिन अरविंद केजरीवाल ने इन दोनों पार्टियों को ठीक-ठाक परेशान कर रखा है। जब अरविंद केजरीवाल ने बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी पर सवाल उठाए तो कांग्रेस को बड़ी राहत मिली। लेकिन उस राहत को सत्ताधारी पार्टी सलीके से एंजॉय भी नहीं कर पाई थी कि अरविंद ने उसके लिए नई परेशानी तैयार कर दी। उनकी राजनीतिक पार्टी का नाम। अरविंद केजरीवाल ने अपनी पार्टी का नाम रखा है आम आदमी पार्टी। लेकिन इससे कांग्रेस क्यों परेशान है? क्योंकि कांग्रेस को लगता है कि 'आम आदमी' उसका है। आजादी के वक्त से ही वह 'कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ' जैसे नारों से देश के आम आदमियों को हांकती आई है।

अरविंद केजरीवाल के इस कदम से केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी और पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह कुछ ज्यादा ही परेशान हैं। दिग्विजय तो इतने चिढ़े हुए हैं कि उन्होंने पार्टी का नाम 'आम आदमी पार्टी' रखने को अरविंद केजरीवाल का बौद्धिक दीवालियापन करार दे दिया क्योंकि आम आदमी उनकी पार्टी के वजूद का आधार रहा है। इसलिए इन दो महानुभावों को लगता है कि नारों में आम आदमी का इस्तेमाल करने से यह उनका हो गया है। कितने समझदार हैं ये लोग! इनके तर्क पर जरा विचार कीजिए। इस हिसाब से तो हाथ भी पार्टी की ही संपत्ति हो गया है। सबका हाथ। मेरा और आपका भी। क्योंकि हाथ तो उनका चुनाव निशान है।

बीजेपी अलग परेशान है। हमारे देश की मुख्य विपक्षी पार्टी को लगता है कि देश के हर आदमी को परेशान और प्रभावित करने वाला मुद्दा यानी भ्रष्टाचार उसने थाली में सजा कर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को दे दिया। इस तरह बीजेपी के पास इस मुद्दे पर नेतृत्व करने के बजाय अपना-सा मुंह लेकर इस आंदोलन के पीछे चलने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया है।

कहीं न कहीं इन दलों के लिए अफसोस भी होता है। इनके पास एक इतिहास है। ऐतिहासिक नेतृत्व है। लेकिन ये सब एक खोल में जी रहे हैं। जिस तरह से ये बदलावों को नजरअंदाज कर रहे हैं, वह अविश्वसनीय है। आजादी के बाद से ही आम आदमी राजनीतिक पार्टियों के लिए 'पवित्र गाय' रहा है। उसे हर पार्टी ने बेशर्मी से दुहा है। उसका फायदा उठाया है। एक बार एक पूर्व कैबिनेट सचिव ने मुझे बताया था कि अगर आप किसी योजना को कैबिनेट मीटिंग में बिना किसी विरोध के पास करना चाहते हैं तो बस किसी तरह ऐसा दिखाइये कि यह योजना आम आदमी के लिए है। और उन्होंने यह भी जोड़ा कि अगर आप योजना को रोकना चाहते हैं तो इसे राष्ट्रीय सुरक्षा से जोड़ दीजिए। कोई आप पर सवाल नहीं उठाएगा।

लेकिन अब यह तरीका ज्यादा काम नहीं करता। क्योंकि सच यह है कि अब आम आदमी गधा नहीं रहा है, जैसा कि इन पार्टियों को लगता है। वह अब इस खेल को समझने लगा है। ये पार्टियां आम आदमी को कितना गलत समझती हैं, इसका अंदाजा भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को शहरी इलाकों के बाहर मिलने वाले समर्थन से ही लगाया जा सकता है।

वे सब लोग, जो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को महज फेसबुक और ट्विटर का शिगूफा कहकर खारिज कर रहे थे, फर्रुखाबाद की रैली में जुटी भीड़ देखकर उनकी आंखें फटी की फटी रह गई थीं। मेरी एक ‘राष्ट्रीय’ दल के नेता से बात हुई। उन्होंने गुपचुप माना कि वे अगर आने-जाने का प्रबंध करें और बाकी खर्च उठाएं, तब भी उन्हें इतनी भीड़ जुटाने में मुश्किल हो जाएगी। न चाहते हुए ही सही, ये हुजूर कम से कम मान तो रहे थे कि आम आदमी भ्रष्टाचार विरोधी ब्रिगेड की इस बात से प्रभावित हो रहा है कि अब उसे बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता।

जहां तक इस आरोप की बात है कि अरविंद केजरीवाल ने 'आम आदमी' नाम रखकर ठीक नहीं किया क्योंकि वह किसी और का है, तो राजनीति और निशानों के मामले में इसकी सबसे बेशर्म मिसाल तो कांग्रेस का झंडा है। यह हमारे राष्ट्रीय झंडे की नकल है। बस अशोक चक्र की जगह हाथ लगा दिया है। किसी को सही अधिकारियों से यह पूछना चाहिए कि इसे बदला क्यों नहीं जाना चाहिए। इससे तो 'भोलेभाले' आम आदमी को यह संदेश जाता है कि कांग्रेस और देश दोनों लगभग एक ही चीज हैं। ऐसा है क्या?
(राजेश कालरा)
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