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भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत समर्थक

भ्रष्टाचार विमर्श में उधार की सोच


भ्रष्टाचार

भ्रष्टाचार

भ्रष्टाचार का मसला भारत में एक राजनीतिक एजेंडे में तब्दील हो गया है। भ्रष्टाचार की राजनीति मीडिया, आरटीआई कार्यकर्ताओं, सिविल सोसाइटी, शहरी मध्य वर्ग के लिए राजनीति का मुद्दा बनती दिख रही है। पर अभी यह नहीं कहा जा सकता कि विभिन्न स्तरों पर विभाजित हमारे समाज में भ्रष्टाचार कितना बड़ा मुद्दा बन पाया है।

यूं तो भारतीय जनतंत्र में भ्रष्टाचार की घटनाएं आजादी के कुछ वर्षो बाद ही उजागर होने लगी थी, पर भ्रष्टाचार के खिलाफ राजनीति की बड़ी शुरुआत ‘जेपी आंदोलन’ के दौर में दिखाई पड़ी। फिर छोटी-मोटी राजनीतिक सक्रियता के साथ आगे बढ़ते हुए अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल के राजनीतिक प्रयासों के रूप में इधर के दिनों में भ्रष्टाचार एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनकर उभरा है। लेकिन इसमें ढेर सारे अंतर्विरोध भी हैं, जो लगातार सतह पर आ रहे हैं। पहला अंतर्विरोध तो यही है कि भ्रष्टाचार को कुछ उसी तरह ‘पैथोलॉजिकल’ माना जा रहा है, जैसा कि 1989 के आसपास वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ ने अफ्रीका व सब सहारा देशों के मामले में कहा था। उनकी सोच थी कि अच्छे प्रशासन और प्रबंधकीय प्रयासों से भ्रष्टाचार दूर किया जा सकता है। मानो यह बाहर से आ गया कोई रोग है, जिसका निदान प्रबंधकीय प्रयासों से संभव है। दूसरा, इस भ्रष्टाचार विमर्श में जो राजसत्ता भ्रष्टाचार का गर्भगृह है, उसी में इसका निदान भी ढूंढ़ा जा रहा है। हम यह भूल जाते हैं कि भ्रष्टाचार हमारे समाज और व्यवस्था में बाहर से आ गए किसी इन्फेक्शन के कारण पैदा हुई बीमारी नहीं है। बल्कि यह हमारे विकास के मॉडल में ही काफी कुछ ‘इनबिल्ट’ है। जनतांत्रिक समाजों में यह राजसत्ता के प्रसार और उसके धनीभूत होने की प्रक्रिया में जन्म लेता और विकसित होता रहा है।

भारत के ऋग्वेदिक समाज में ही ‘नैतिक विश्व’, जिसे ऋत् कहा जाता है और जिसका संचालक ‘वरुण’ को माना है, उत्तर वैदिक काल के आते-आते छिन्न-भिन्न होने लगता है। गौरतलब है कि तभी राज्य निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ हुई थी। उस ‘नैतिक विश्व’ के संचालक ‘वरुण’ देव मंडल में अप्रासंगिक हो जाते हैं।  भारतीय इतिहास का पहला बड़ा साम्राज्य ‘मगध साम्राज्य जब स्वरूप ग्रहण करता है, तब उसका सर्वाधिक शक्तिशाली ‘नंद राजा’ संपत्ति छिपाकर रखने वाला लालची राजा के रूप में सामने आता है। बुद्ध और महावीर के काल में जब मौर्य साम्राज्य के रूप में भारतीय राज्य निर्माण  (स्टेट फॉरमेशन) की प्रक्रिया अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंची, तो वेतनभोगी सेना और ‘भू-राजस्व कर’ संकलन की व्यवस्था को सुदृढ़ बनाया गया। इस प्रक्रिया में एक बड़ी संगठित नौकरशाही की स्थापना हुई। तभी उस व्यवस्था में भ्रष्टाचार ‘इनबिल्ट’ होता दिखाई पड़ने लगा था। कौटिल्य अपने अर्थशास्त्र  में ऐसे करों और उनके संकलन में होने वाले भ्रष्टाचार व ऐसे अपराधों  पर ‘दंड’ का प्रावधान करते हुए मानते हैं कि ‘जिस प्रकार किसी की जिह्वा के अग्र भाग पर रखे मधु या विष का स्वाद न लेना असंभव है, उसी तरह यह भी असंभव है कि जो व्यक्ति राजकीय धन के लेन-देन से जुड़ा हो, वह राजा की संपत्ति में से कुछ न ले। जिस प्रकार यह जानना असंभव है कि जल में तैरने वाली मछली कब पानी पीती है, उसी तरह यह जानना भी असंभव है कि कोई जिम्मेदार राज्य कर्मचारी कब धन का गबन करता है।’

कौटिल्य ने ऐसे भ्रष्टाचार के लिए संपत्ति जब्त करने से लेकर मृत्युदंड की सजा का प्रावधान किया था। साथ ही जो भ्रष्टाचार का शिकार होता है, उसके लिए क्षतिपूर्ति भी। मनु-स्मृति  कब लिखा गया, यह कहना तो कठिन है, परंतु इसमें भी यह चिंता है कि प्रजा की रक्षा के लिए नियुक्त भृत्य (सेवक) प्राय: दूसरों का धन लेने वाले और वंचक होते हैं। मनु-स्मृति  में निर्देश दिया गया है कि राजा इससे अपनी प्रजा की रक्षा करें। गुप्तकाल में लिखे गए अमरकोष  में भ्रष्टाचार की ‘लालच वृत्ति’ रखने वाले लालची के लिए पांच तरह के विशेषण प्रयुक्त किए गए हैं। इनमें अतिशय लोभी को ‘लोलुभ’ या ‘लोलुप’ कहा गया है एवं ‘भ्रष्टाचारी’ के लिए सात नाम बताए गए हैं, जिनमें एक विशेषण ‘भ्रष्ट’ भी है। प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक जेम्स स्कॉट की पुस्तक द आर्ट ऑफ नॉट बीइंग गवन्र्ड  में पूरे साउथ एशिया में राज्य निर्माण की प्रक्रिया में विकसित हुई ब्यूरोक्रेसी व नियंत्रण की व्यवस्था के साथ ‘भ्रष्ट कर्म’ और जनता के प्रतिकार की काफी जानकारी मिलती है।

भले ही राज्य निर्माण के साथ भ्रष्टाचार उसमें ‘इनबिल्ट’ दिखाई देता है, लेकिन चाहे कौटिल्य हों या मनु-स्मृति  या बुद्ध व महावीर, सभी भ्रष्टाचार का निवारण सिर्फ ‘राज्य’ की राजनीति में न देख ‘स्व’ की ‘आत्मिक शुद्धि’ में देखते हैं, जबकि आज चल रहे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ‘स्व’ की समीक्षा, आलोचना और शुद्धि की बात न करते हुए राजनीति की शुद्धि, गवर्नेस की शुद्धि व राजसत्ता की प्राप्ति को उसका निदान मानते हैं। भ्रष्टाचार उनके लिए मात्र ‘अंदर’ का परिक्षेत्र है, अपने पर नियंत्रण का मिशन इसमें न के बराबर है। भ्रष्टाचार का मूल कारण जिस लालच वृत्ति को माना गया है, उसे नियंत्रित करने का कोई सुझाव और प्रयास इसमें नहीं दिखता। मौजूदा दौर के आक्रामक बाजार, उसके विज्ञापन वगैरह के माध्यम से जिस लालच वृत्ति का सृजन हो रहा है, उसकी कोई आलोचना इस ‘आधुनिकतावादी भ्रष्टाचार संबंधी विमर्श’ में नहीं दिखती। चाहे यह विमर्श 1989 में वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ द्वारा शुरू किया गया हो या अन्ना हजारे व अरविंद केजरीवाल द्वारा। भ्रतृहरि ने, जिन्हें लोक समाजों में ‘भरथरी’ कहा जाता है, सोना और धन के आकर्षण व लालच की जो आलोचना की थी, वह इन आंदोलनों से गायब है। यह वही सोच है, जो बुद्ध, कबीर, रविदास के जरिये हमारे लोक मानस को सृजित करती है।

भ्रष्टाचार संबंधी विमर्श सिर्फ दूसरे की आलोचना का बिंदु न होकर ‘स्व’ की आलोचना का भी बिंदु है। यह हमारे ‘विकास’ की व्यवस्था, और राज्य निर्माण की प्रक्रिया में ‘इनबिल्ट’ है। यह ‘पैथोलॉजिकल’ नहीं है। भ्रष्टाचार मात्र राजनीतिक और प्रशासन की प्रबंधकीय शुद्धि से नहीं दूर किया जा सकता, वरन् इसके लिए ‘आत्मशुद्धि’ भी समान रूप से जरूरी है। हमने महात्मा गांधी से संवाद करना छोड़ दिया है। अब हम सिर्फ उन्हीं विचारों पर निर्भर हैं, जो या तो वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ और आधुनिक बाजार व्यवस्था से उपजे हैं या फिर अनेक फंडिंग एजेंसी के वे विचार हैं, जो एनजीओ के माध्यम से हम तक पहुंच रहे हैं। उन्हीं विचारों के आधार पर आज हमारे देश का भ्रष्टाचार विरोधी विमर्श खड़ा है।

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