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भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत समर्थक

अन्ना हजारे के साथ मीडिया का विश्वासघात

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अन्ना का आंदोलन अब नेपथ्य में जा चुका है। राजनीतिक वर्ग का बड़ा तबका कुटिल मुस्कान बिखेड़ने में मगन है। आम जन कुछ खोजते से नजर आ रहे हैं। उनका संबल कितना टूटा कहा नहीं जा सकता। मीडिया ये चीत्कार सुनता पर डेढ़ साल से सरकारी आकाओं की खुशामद में लगे दिल्ली के अधिकाँश पत्रकार चारण भाट की तरह अपने इस अनुभव का विस्तार करते आंदोलनी नेताओं के विच हंट में रमा है। अब राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के बचाव संदेश के बाद साफ हो जाता है कि जन-चेतना के ऐतिहासिक उभार से उबर चुके नेताओं ने जता दिया है कि सिविल सोसाइटी की मौजूदगी उसे बर्दाश्त नहीं।

इंडिया में यकीन रखने वाला ये राजनीतिक जमात इतना भर चाहता कि सोसाइटी से जुड़े लोग नरेगा और इसी तरह की योजनाओं को चमत्कारिक बताता फिरे और भूल से भी ग्रीनपीस जैसा दबाव समूह बनने की हिमाकत ना करे। ये भी तय हो गया है कि सत्ता की उद्दंडता और मीडिया के बीच गठजोड़ अभी चलेगा।

उस दिन यानि 3 अगस्त ... जब अन्ना के मंच से आन्दोलन समाप्त करने की घोषणा हुई तो रंग-बिरंगी पोशाक में डटे लोग जंतर-मंतर के यंत्रों की तजबीज करना चाह रहे थे कि कहीं धूप और छाया का अनुपात तो नहीं गड़बड़ाया? निराशा और विषाद के बीच पैरों की चहलकदमी कबूल कर रहे थे कि भारत की उम्मीद एक बार फिर पश्त हुई है। सपने संजोए आँखों को पेड़ों की झुरमुट के बीच से दूर खड़े सत्ता केन्द्रों के विशाल खम्भे अट्टहास करते नजर आ रहे थे। मानो प्रजा पर जीत हासिल कर तंत्र खिलखिला कर अट्टहास कर रहा हो। उस दिन तक तंत्र की तरफ से सन्देश आने की उम्मीद ख़त्म हो गई थी।

टीवी स्टूडियो गुलजार हैं उन लोगों से जो अन्ना आन्दोलन या रामदेव की खामियां उजागर करने में लगे हैं। उन्हें अहसास है कि साल 2011 के 16 अगस्त के जन-सैलाब की याद भर से कांपने वाले नेता फिर से रुतबे में आए हैं। लिहाजा अन्ना और रामदेव के आन्दोलन को कमतर बताने के लिए जे पी आन्दोलन को याद किया जा रहा है। मसलन उर्मिलेश नाम के पत्रकार जेपी मूवमेंट और प्रजातंत्र को अमृत वचन की तरह पेश करते हैं, लेकिन वे आज की पीढी को ये नहीं बताते कि 74 के आन्दोलन में जेपी ने सेना को उकसाते हुए दिल्ली का तख्ता पलट देने के लिए कहा था। उसी आन्दोलन के दौरान देश में उनके समर्थकों द्वारा हिंसक वारदातों को अंजाम दिया गया। उर्मिलेश ये बताना क्यों भूलते हैं कि जेपी आन्दोलनकारियों ने देश भर में जगह-जगह मकानों की दीवारें इंदिरा गांधी को लिखी गंदी गालियों से पाट दी थी। बेशक प्रशासन के लोगों ने उसे मिटाया था। चौक-चौराहों पर इंदिरा सहित वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं के सांकेतिक श्राद्ध कर्म किये गए।

अन्ना आन्दोलन के लोगों ने अभी तक इस दर्जे की नीचता नहीं दिखाई है। बल्कि जन-चेतना के नैतिक पक्ष का अवतार आजादी के बाद अन्ना के ही लोगों ने विराट रूप में पहली बार दिखाया। दग्ध नेताओं की ओर से साम, दाम, दंड, और भेद की तमाम कोशिशें आजमाई गई बावजूद इसके नई पीढी में प्रेरणा जगाने में आन्दोलनकारी लगे रहे। उर्मिलेश को मलाल है कि अन्ना आन्दोलन ने दम तोड़ा। संभव है उन्हें अपने आन्दोलन की याद हो आई हो। पटना में उनके द्वारा पत्रकारों के लिए किया गया आन्दोलन इस मायने में असफल रहा कि नव भारत टाइम्स का पटना संस्करण बंद कर दिया गया। इस संस्करण के तमाम पत्रकार सड़कों पर आ गए।

कहा जा रहा है कि अन्ना के लोग भारत में यूरोप की तर्ज पर एक दबाव समूह के तौर पर बने रहेंगे। इसका अंदाजा  अनशन को समाप्त करवाने में लगे लोगों की फेहरिस्त देख कर लगाया जा सकता है।  कुलदीप नैयर जैसे लोग भी थे इसमें। वे लाल बहादुर शास्त्री की मौत पर सवाल उठा सकते पर इसी मुद्दे पर कांग्रेस से सवाल करने से बचते हैं। अन्ना टीम के लोगों की अनशन करने की रणनीतिक भूल इस फेहरिस्त में शामिल विभिन्न विचारधाराओं और सरकार से पंगा नहीं लेने वाले ऐसे नामी-गिरामी लोगों के लिए सुनहरा मौका बनकर आया। केजरीवाल जैसों को समझा-बुझा कर सत्ता की राजनीति करने वालों की राह आसान कर दी गई। अनशन पर सिर्फ अन्ना होते तो दृश्य कुछ दूसरा होता।

ये अकारण नहीं है कि जे एन यू के वामपंथी शिक्षक भी अपने मार्क्सवादी छात्रों के इस आन्दोलन में शामिल रहने की बात कबूलने लगे हैं। पिछले साल अप्रैल में भी इन्होने ये बात स्वीकारी थी। लेकिन बीच के डेढ़ साल में जब कांग्रेस की तरफ से इसे आरएसएस प्रायोजित आन्दोलन करार दिया जा रहा था तो ये वामपंथी चुप रहे ... बल्कि कांग्रेस की मुहिम को शह देते रहे। यही रवैया समाजवाद के नाम पर राजनीति करने वाले रिजनल क्षत्रपों का रहा जो विभिन्न घोटालों की जड़ में रहे हैं। इन नेताओं ने राहत की सांस ली है कि बेहतर लोकपाल अब दूर की कौड़ी है।

बावजूद इसके लोकपाल के लिए यश लेने की होड़ में तमाम पार्टियां कलाबाजी दिखाएंगे। इतना तो तय है कि कम से कम अन्ना के साथ युवा वर्ग की जो केमिस्ट्री बनी उन युवाओं को कांग्रेस अपने पाले में लाना चाहेगी। राहुल गांधी जो कि अन्ना के कारण युवाओं के लिए तरस गए थे अब अपना सूखा मिटाने की कोशिश करेंगे। लोकपाल पर हलचल दिखा कर कांग्रेस इस मकसद को साकार करना चाहेगी। उधर अन्ना के लोगों की हताशा को भुनाने की कोशिश बीजेपी की ओर से होगी। इन दलों को अहसास है कि ये वर्ग किसी भी तरफ सरक सकता है। अन्ना आन्दोलन के ठहराव की इस से बेहतर टाइमिंग की लालसा बीजेपी ने नहीं की होगी। लोकसभा चुनाव तक के लिए उसे फोकस में रहने का वक्त मिल जाएगा। कांग्रेस के इशारे पर मीडिया की उस मुहिम का अंत भी होगा जिसके तहत विपक्ष की स्पेस अन्ना द्वारा ले लेने का लगातार प्रचार किया गया।

अब इन्डियन राजनीति के तिलिस्म दिखलाए जाएंगे। कांग्रेस ब्रांड सेक्युलरिज्म-कम्युनलिज्म पर गरमागरम बहस होगी, कांग्रेस की तानाशाही मानसिकता को एरोगेंस कह कर छुपाया जाएगा। जातीय राजनीति करने वालों के लिए आरक्षण के मुद्दे उठाए जाएँगे। तिस पर लोकतंत्र की दुहाई दी जाएगी। प्रगतिशीलता दिखाने के लिए खाप पंचायतों से इनपुट मिल ही जाएगा। विदर्भ के किसान आत्महत्या करेंगे तो शाहरुख़ खान को दस-दस दिनों तक दिखा देंगे ... देश में भूख से मौत होगी तो मोहाली वन डे को सात दिनों तक थोप दिया जाएगा। एन के सिंह अन्ना टीम से पत्रकारों के लिए माफी मंगवा लेंगे पर मुंबई की हिंसा के शिकार पत्रकारों के लिए चुपी साध लेंगे। राजदीप के असम दंगों पर उस खतरनाक बयान की चर्चा नहीं चलाएंगे। अगले चुनाव तक भारत की चीत्कार पर इनकी तरफ से विमर्श अब भूल जाएं।

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